तुम में से प्रत्येक व्यक्ति परमेश्वर में विश्वास करके नए सिरे से अपने जीवन की जांच करके यह देख सकता है कि क्या परमेश्वर को खोजते समय, तुम सच्चे रूप में समझ पाए हो, सच्चे रूप में पूर्णत: समझ गये हो, और सच्चे रूप में परमेश्वर को जाने हो, और यह कि तूम सच्चे रूप में जान गये हो कि, विभिन्न मनुष्यों के प्रति परमेश्वर का मनोभाव क्या है, और यह कि तुम वास्तव में यह समझ गये हो कि परमेश्वर तुम पर क्या कार्य कर रहा है और परमेश्वर कैसे उसके प्रत्येक कार्य को व्यक्त करता है।यह परमेश्वर जो तुम्हारी ओर है, तुम्हारे विकास को मार्गदर्शन दे रहा है, तुम्हारी नियति को बना रहा है और तुम्हारी सभी आवश्यकताओं को पूरा कर रहा है - अंतिम विश्लेषण में तुम क्या सोचते और समझते हो और तुम वास्तव में कितना उसके बारे में जानते हो? क्या तुम जानते हो कि प्रत्येक दिन वह तुम्हारे लिए कौन से कार्य करता है? क्या तुम जानते हो कि उसके प्रत्येक कार्य के पीछे क्या नियम और उद्देश्य होते हैं? क्या तुम जानते हो कि वह कैसे तुम्हारा मार्ग दर्शन करता है? क्या तुम जानते हो कि किन स्रोतों के द्वारा वह तुम्हारी सभी ज़रुरतों को पूरा करता है? क्या तुम जानते हो कि किन तरीकों से वह तुम्हारी अगुवाई करता है? क्या तुम जानते हो कि वह तुमसे किस बात की अपेक्षा रखता है और तुम में क्या देखना चाहता है? क्या तुम उसके दृष्टिकोण को जानते हो जिस प्रकार से वह तुम्हारे विभिन्न तरह के व्यवहार को लेता है? क्या तुम यह जानते हो कि क्या तुम उसके एक पसंदीदा व्यक्ति हो? क्या तुम उसके आनन्द, क्रोध, दुख और प्रसन्नता के पीछे छिपे विचारों और उद्देश्यों को जानते हो? अंत में, क्या तुम जानते हो कि जिस परमेश्वर पर तुम विश्वास करत हो वह किस प्रकार का परमेश्वर है? क्या ये ऐसे कुछ प्रश्न हो जिनके बारे में तुमने पहले कभी भी न तो समझा और न उन पर विचार किया? परमेश्वर पर अपने विश्वास का अनुगमन करते हुए क्या तुमने कभी वास्तविक मूल्यांकन और परमेश्वर के कार्यों का अनुभव करके उसके प्रति अपनी सभी ग़लतफहमियों को दूर किया है? क्या तुमने कभी भी परमेश्वर का अनुशासन और ताड़ना प्राप्त करने के बाद, सच्चा समर्पण और ध्यान दिया है? क्या तुमने परमेश्वर की ताड़ना और न्याय के मध्य मनुष्य की विद्रोही और शैतानी प्रकृति को जान पाए हो और परमेश्वर की पवित्रता को थोड़ा सा भी प्राप्त किया है? क्या तुमने कभी भी परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन और प्रकाशन के अधीन अपने जीवन को एक नए प्रकार से देखना प्रारम्भ किया? क्या तुमने कभी परमेश्वर के द्वारा भेजी हुई परख के मध्य मनुष्यों के अपराध पर उसकी असहिष्णुता को महसूस किया है, साथ ही साथ वह तुमसे क्या अपेक्षा रखता है और वह तुम्हें कैसे बचा रहा है, उसे महसूस किया है? यदि तुम यह नहीं जानते कि परमेश्वर को गलत समझना क्या है या यह कि इन ग़लतफहमियों को ठीक कैसे किया जा सकता है, तो यह कहा जा सकता है कि तुम परमेश्वर के साथ कभी भी वास्तविक सहभागिता में नहीं आए हो और परमेश्वर को कभी जाना ही नहीं, या कहा जा सकता है कि तुमने उसे कभी भी समझने की इच्छा तक नहीं की। यदि तुम परमेश्वर के अनुशासन और ताड़ना को नहीं जानते हो, तो निश्चित ही तुमने समर्पण और परवाह को जाना ही नहीं, या फिर तुमने कभी परमेश्वर के प्रति अपने आपको वास्तव में समर्पित नहीं किया और परमेश्वर की परवाह तक नहीं की। यदि तुमने कभी भी परमेश्वर की ताड़ना और न्याय को अनुभव नहीं किया है तो निश्चित तौर पर तुम उसकी पवित्रता को नहीं जानते हो और तुम इतना भी नहीं समझ पाओगे कि मनुष्यों का परमेश्वर के प्रति विद्रोह क्या होता है। यदि जीवन के प्रति तुम्हारा दृष्टिकोण ठीक नहीं है या जीवन में सही उद्देश्य नहीं है, और अपने भविष्य के प्रति दुविधा और अनिर्णय की स्थिति में हो, यहां तक कि आगे बढ़ने में भी हिचकिचाहट की स्थिति में हो, तो यह स्पष्ट है कि तुमने परमेश्वर के प्रकाशन और मार्गदर्शन को कभी भी वास्तव में महसूस ही नहीं किया है और यह भी कहा जा सकता है कि तुम्हें कभी भी परमेश्वर के वचनों का पोषण प्राप्त नहीं हुआ है। यदि तुम अभी तक परमेश्वर की परीक्षा से नहीं गुज़रे हो तो तुम यह नहीं जान पाओगे कि मनुष्य के अपराधों के प्रति परमेश्वर की असहिष्णुता क्या है और न ही यह समझ सकोगे कि आखिरकार परमेश्वर तुमसे चाहता क्या है, और इसकी समझ तो और भी कम होगी कि आखिरकार मनुष्य के प्रबंधन और उसके बचाव का उसका क्या कार्य है। इससे कुछ भी फ़र्क नही पड़ता कि एक व्यक्ति कितने वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास कर रहा है, यदि उसने कभी भी उसके वचन का अनुभव या उसमें कुछ भी समझ हासिल नहीं की है, फिर निश्चित तौर पर वह उद्धार के मार्ग पर नहीं चल रहा है, और परमेश्वर पर उसका विश्वास किसी वास्तविक तत्व पर आधारित नहीं है, उसका परमेश्वर के प्रति ज्ञान भी शून्य है और परमेश्वर के प्रति श्रद्धा क्या होती है इसका उसे बिल्कुल भी अनुमान नहीं है।
परमेश्वर की सम्पत्ति और परमेश्वरत्व, परमेश्वर का सत्व, परमेश्वर का स्वभाव - यह सब कुछ मानवजाति को उसके वचन के माध्यम से समझाया जा चुका है। जब इंसान परमेश्वर के वचन को अनुभव करेगा, तो परमेश्वर के कहे हुए वचन के पीछे छिपे हुए उद्देश्यों को समझेगा, तो उनके अनुपालन की प्रक्रिया में, परमेश्वर के वचन की पृष्ठभूमि तथा स्रोत और परमेश्वर के वचन के अभिप्रेरित प्रभाव को समझेगा तथा सराहना करेगा। मानवजाति के लिए, ये सभी वे बातें हैं जो मनुष्य को अवश्य ही अनुभव, समझना और जीवन और सत्य में प्रवेश करने के लिए सीखनी चाहिए, परमेश्वर के अभिप्राय को समझना चाहिए, अपने स्वभाव में परिवर्तित हो जाना चाहिये और परमेश्वर की सम्प्रभुता और व्यवस्था के प्रति समर्पित हो जाना चाहिये। साथ ही साथ मनुष्य जो अनुभव, समझता और इन बातों में प्रवेश करता है, तो वह धीरे-धीरे परमेश्वर की समझ को प्राप्त करता है और साथ ही वह ज्ञान के विभिन्न स्तरों को भी प्राप्त करता है। यह समझ और ज्ञान मनुष्य के द्वारा कल्पना करने या मानने से नहीं आती है, परन्तु उसके द्वारा जिसे उसने समझा है, अनुभव किया है, महसूस किया है और अपने आप में पक्का किया। केवल इन बातों को समझने, अनुभव करने, महसूस करने और अपने आप में पक्का करने के बाद ही परमेश्वर के प्रति मनुष्य का ज्ञान संतोष प्राप्त करता है। केवल वही ज्ञान वास्तविक, असली और सही है जो वह इस समय प्राप्त करता है और उसके वचनों का मूल्यांकन, करने, महसूस करने और अपने आप में पक्का करने के द्वारा परमेश्वर के प्रति सही समझ और ज्ञान को प्राप्त करने की यह प्रक्रिया, और कुछ नहीं वरन् परमेश्वर और मनुष्य के मध्य सच्चा संवाद है। इस प्रकार के संवाद के मध्य, मनुष्य परमेश्वर की समझ और उसके उद्देश्यों को समझ सकता है, परमेश्वर की सम्पत्ति और परमेश्वरत्व को सही तौर पर जान सकता है, परमेश्वर की वास्तविक समझ और तत्व को ग्रहण कर सकता है, धीरे-धीरे परमेश्वर की प्रकृति और समझ को जा पाता है, एक पूरी निश्चितता के साथ परमेश्वर के सम्पूर्ण प्रकृति के ऊपर प्रभुत्व की सही परिभाषा और परमेश्वर की पहचान और स्थान के ज्ञान तथा उसकी मौलिक छवि प्राप्त करता है। इस प्रकार की सहभागिता के मध्य, मनुष्य थोड़ा-थोड़ा करके बदलता है, परमेश्वर के प्रति उसके विचार, अब वह खाली हवा में अपने विचारों को नहीं दौड़ाता या उसके बारे में अपनी गलतधारणों पर लगाम लगाता है या उसे गलत नहीं समझता या उसकी भर्त्सना नहीं करता या उस पर अपना निर्णय नहीं थोपता या उस पर संदेह नहीं करता। फलस्वरुप, परमेश्वर के साथ मनुष्य के विवाद कम होंगे, झड़प कम होगी, और ऐसे मौके कम आयेंगे जब वह परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करता है। इसके विपरीत, मनुष्य का परमेश्वर के प्रति सरोकार और समर्पण बढ़ता ही जाता है और परमेश्वर के प्रति उसका आदर और अधिक गम्भीर होने के साथ-साथ वास्तविक होता जाता है। इस प्रकार के संवाद के मध्य में, मनुष्य सत्य के प्रावधानऔर जीवन के बपतिस्मा को केवल प्राप्त नहीं करता, अपितु उसी समय वह परमेश्वर के वास्तविक ज्ञान को भी प्राप्त करता है। इस प्रकार के संवाद के मध्य में न केवल मनुष्य की प्रकृति में परिवर्तन होता जाता है और वह उद्धार को प्राप्त करता है, अपितु उसी समय वास्तविक आदर को एकत्रित करता है और परमेश्वर के प्रति प्राणी के रूप में आराधना करता है। इस प्रकार की सहभागिता रखने के कारण, मनुष्य का परमेश्वर पर भरोसा एक खाली कागज की तरह नहीं रहता या सिर्फ़ मुख से उच्चारित प्रतिज्ञाओं के समान, या खाली हवा को पकड़ना और मूर्तिकरण का प्रारुप नहीं होता है; केवल इस प्रकार की सहभागिता में मनुष्य प्रतिदिन परिपक्वता की ओर धीरे-धीरे बढ़ता जाता है और अब धीरे-धीरे उसकी प्रकृति परिवर्तित होती जाएगी और धीरे-धीरे परमेश्वर के प्रति उसका अनिश्चित और संदेहयुक्त विश्वास एक सच्चे समर्पण और सरोकार, वास्तविक आदर में बदल जाता है; और मनुष्य परमेश्वर के अनुसरण में, धीरे-धीरे निष्क्रियता से सक्रियता में विकसित होता जाता है, एक ऐसे मनुष्य से जिसपर कार्य किया गया हो से सकारात्मक कार्यशील मनुष्य में विकसित हो जाता है; केवल इसी प्रकार की सहभागिता से ही मनुष्य में वास्तविक समझ आ सकती है और वह परमेश्वर की अवधारणा को, परमेश्वर के वास्तविक ज्ञान को समझ सकता है। क्योंकि अधिकतर लोगों ने परमेश्वर के साथ वास्तविक सहभागिता में प्रवेश ही नहीं गया है, परमेश्वर के प्रति उनकी समझ उनकी विद्या शब्दों और सिद्धांतों पर आकर ठहर जाती है। कहने का तात्पर्य यह है कि लोगों का एक बड़ा समूह, चाहे वे कितने ही सालों से परमेश्वर पर विश्वास करते हुए आ रहे हों,परन्तु वे परमेश्वर को जानने के बारे में अभी भी अपनी आरम्भिक अवस्था में ही हैं, आदर-भक्ति के आधारभूत प्रारुपों पर ही अटके हुए हैं,अपने पौराणिक रंग और सामंती अंधविश्वास की साज-सज्जा पर ही लगे हुए हैं। यही मनुष्य की परमेश्वर के प्रति समझ उसके प्रारम्भ बिन्दु पर ही रुकी हुई है तो इसका अर्थ यह है कि एक तरह से यह अस्तित्वहीन ही है। मनुष्य की परमेश्वर के स्थान और पहचान से के अलावा, मनुष्य का परमेश्वर पर भरोसा भी अस्पष्ट और अनिश्चित है। ऐसा होने से, परमेश्वर के लिए मनुष्य की श्रद्धा वास्तविक कहां होगी?
तुम कितनी ही दृढ़ता से उसके अस्तित्व पर विश्वास करते हो यह बात परमेश्वर के ज्ञान के लिए काफी नहीं है, न ही परमेश्वर के प्रति श्रद्धा के लिए यह काफी है। इससे कुछ भी फ़र्क नहीं पड़ता कि तुमने उसकी आशीषों और अनुग्रह का कितना आनन्द लिया हो, यह बात परमेश्वर के ज्ञान के लिए काफी नहीं है। इससे कुछ फ़र्क नहीं पड़ता कि तुम अपना सर्वस्व पवित्र करने के लिए कितने उत्सुक हो और प्रभु के लिए अपना सब कुछ त्यागने को भी तैयार हो, लेकिन यह तुम्हारे परमेश्वर के ज्ञान का स्थान नहीं ले सकता। शायद परमेश्वर के वचन तुम्हारे लिये चिरपरिचित हो गये हैं, या तुम्हें उसका वचन जबानी भी याद है और उन्हें वापस जल्दी-जल्दी दोहरा सकते हो; लेकिन यह तुम्हारे परमेश्वर के ज्ञान का स्थान नहीं ले सकता। परमेश्वर के पीछे चलने की मनुष्य की अभिलाषा कितनी भी तीव्र हो, यदि उसके पास परमेश्वर की वास्तविक सहभागिता नहीं होगी या परमेश्वर के वचन का वास्तविक अनुभव नहीं किया होगा, तो परमेश्वर का ज्ञान बिल्कुल कोरा या एक अंतहीन स्वप्न से अधिक कुछ भी नहीं होगा; तो इसका अर्थ यह है कि तुमने परमेश्वर के साथ बहुत करीब से बातचीत की हो या उससे रूबरू हुए हो, परमेश्वर के ज्ञान की जानकारी में तुम फिर भी शून्य हो और परमेश्वर के प्रति तुम्हारी श्रद्धा खोखले नारे या आदर्श के अलावा और कुछ भी नहीं है।
कई लोग परमेश्वर के वचन को प्रतिदिन पढ़ने के लिए ही उठाते हैं, यहां तक कि उसके उत्कृष्ट संदर्भों को सबसे बेशकीमती सम्पत्ति के तौर पर स्मृति के लिए ध्यानपूर्वक चिन्हित करके रखते हैं और इससे भी अधिक परमेश्वर के वचन को जहां कहीं सम्भव हो प्रचार करते हैं, दूसरों को उसके वचनों की आपूर्ति करते हैं, सहायता करते हैं। वे यह सोचते हैं कि ऐसा करने से वे परमेश्वर की गवाही देते हैं, उसके वचन की गवाही देते हैं; ऐसा करना परमेश्वर के मार्ग का पालन करना है; वे यह सोचते हैं कि ऐसा करना परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीवन जीना है, ऐसा करने से उसके वचन को अपने जीवन में लागू करते हैं, ऐसा करने से उन्हें परमेश्वर की सराहना प्राप्त होगी और वे उद्धार पाएंगे और सिद्ध बनेंगे। परन्तु, जैसे वे परमेश्वर के वचन का प्रचार करते हैं, वैसे ही वे परमेश्वर के वचन को अभ्यास में कभी नहीं लाते या अपने आप को उस स्थान पर लाने की कोशिश नहीं करते हैं जो कि परमेश्वर के वचन से मेल खाती है। इसके बजाय, वे परमेश्वर के वचन को प्रशंसा पाने के लिए उपयोग में लाते हैं और दूसरों के भरोसे को भी छल से प्राप्त करते हैं, ताकि वे अपने आप ही प्रबंधन में प्रवेश कर सकें और परमेश्वर की महिमा का गबन कर सकें और चुरा सकें। वे आशा करते हैं कि मुफ्त में ही परमेश्वर के वचन को फैलाने का अवसर का लाभ उठा सकें और परमेश्वर का कार्य करके पुरस्कार और उसकी प्रशंसा को प्राप्त कर सकें। ऐसे कितने ही वर्ष गुज़र चुके होंगे, परन्तु ये लोग न केवल परमेश्वर के वचन के प्रचार करने की प्रक्रिया में परमेश्वर की प्रशंसा को प्राप्त करने के लिए अयोग्य रहे हैं और न सिर्फ़ वे परमेश्वर के वचनों की गवाही देने की प्रक्रिया में उस मार्ग खोजने में असफल रहे हैं जिसका उन्हें अनुसरण करना चाहिये था, और दूसरों को परमेश्वर के वचनों के माध्यम से सहायता और आपूर्ति पहुंचाने की प्रक्रिया में उन्होंने न केवल अपने को उससे वंचित रखा, वे न सिर्फ़ परमेश्वर को जानने में अयोग्य रहे हैं या परमेश्वर के वचन के प्रति वास्तविक श्रद्धा की जागृति के अयोग्य रहे हैं, इन सब बातों को करने की प्रक्रिया में; परन्तु इसके विपरीत, परमेश्वर के बारे में उनकी ग़लतफ़हमियां और भी गहराती जाती हैं। उस पर भरोसा न करना और भी अधिक बढ़ जाता है और उसके बारे में उनकी कल्पनाएं और भी अधिक अतिशयोक्तिपूर्ण होती जाती हैं। परमेश्वर के बारे में अपनी ही परिकल्पना से आपूर्त्त होकर और निर्देशित होकर, वे अपने ही तत्वों में परिपूर्णता को प्रदर्शित करते हैं, जैसे कि वे अपने ही कौशल से बिना कठिनता से आराम से चलते जा रहे हैं, जैसे कि उन्होंने अपने जीवन का उद्देश्य, अपना लक्ष्य प्राप्त कर लिया है, और जैसे कि उन्होंने नए जीवन को जीत लिया है और बचाए गए हैं, जैसे कि परमेश्वर के वचनों को अपने मुंह से बोलने में बड़ी स्पष्टता से सत्य तक उनकी पहुँच हो गई है, उन्होंने परमेश्वर के अभिप्राय को पकड़ लिया है और परमेश्वर को जानने के मार्ग को खोज लिया है, जैसे कि प्रचार करने की प्रक्रिया में परमेश्वर से कई बार रू-ब-रू होते हैं। और अक्सर वे "द्रवित" होकर बार-बार रोते हैं और अक्सर परमेश्वर के वचन में "परमेश्वर" के द्वारा अगुवाई प्राप्त करते हैं। वे उसकी गम्भीर उत्सुकता और उदार प्रयोजनों को निरंतर पकड़ने का दिखावा करते हैं और साथ ही साथ मनुष्य के लिए परमेश्वर के उद्धार और उसके प्रबंधन को भी जानने का दावा करते हुए दिखाई देते हैं, वे यह भी दिखावा करते हैं कि उसकी प्रकृति और उसके धार्मिक स्वभाव को भी जान गए हैं। इस नींव पर आधारित, वे परमेश्वर की मौजूदगी पर विश्वास करने का और भी दृढ़ता से दावा करते हैं, उसकी महानता की स्थिति को और भी अच्छे से परिचित होने और उसकी भव्यता एवं श्रेष्ठता को गहराई से महसूस करने का भी दावा करते हैं। परमेश्वर के वचन के ज्ञान की सतही जानकारी में प्रवेश करने के बाद, ऐसा प्रतीत होता है कि उनके विश्वास में वृद्धि हुई है, कष्टों को सहने के उनके संकल्प में उनको दृढ़ता मिली है और परमेश्वर के ज्ञान में उनकी और गहराई बढ़ी है। वे शायद ही यह जानते हैं कि जब तक वे परमेश्वर के वचन का वास्तविक अनुभव नहीं करेंगे, उनका परमेश्वर के बारे में सारा ज्ञान और उसके बारे में उनके विचार उनकी ही काल्पनिक इच्छाओं और अनुमान से निकले हैं। उनका विश्वास परमेश्वर की किसी भी जांच के सामने ठहर नहीं सकेगा। उनकी तथा-कथित आत्मिकता और उच्चता उन्हें परमेश्वर की किसी भी परीक्षा या जांच-पड़ताल के सामने बिल्कुल भी नहीं ठहर सकेगी। उनका संकल्प बालू पर बने हुए महल के समान है, और उनका तथाकथित परमेश्वर का ज्ञान भी उनकी कोरी कल्पनाओं की उड़ान है। वास्तव में, ये लोग, जिन्होंने पिछले के समान अभी भी परमेश्वर के वचन में काफी प्रयास किया है, और उन्होंने कभी भी यह महसूस नहीं किया कि वास्तविक श्रद्धा क्या है, वास्तविक समर्पण क्या है, वास्तविक सरोकार क्या है, या परमेश्वर का वास्तविक ज्ञान क्या है। वे सिद्धान्तों, कल्पनाओं, ज्ञान, भेंट, परम्परा, अंधविश्वास और यहां तक कि मानवता के नैतिक मूल्यों को लेते हैं और उन्हें परमेश्वर पर विश्वास और उसके पीछे चलने के लिए "पूंजी निवेश" और "सैन्य हथियार" के तौर पर प्रयोग करते हैं। यहां तक कि परमेश्वर पर विश्वास करने और उसका अनुगमन करने में आधार बना कर प्रयोग करते हैं। साथ ही, वे इस पूंजी और हथियारों को लेते हैं और उसे परमेश्वर को जानने, परमेश्वर के निरीक्षण पर विवाद करने के लिये, मिलने के लिये, परीक्षण करने, परख, ताड़ना देने और न्याय करने के लिए जादुई यंत्र के तौर पर बना देते हैं। अंत में, जो कुछ भी वे एकत्रित करते हैं उसमें परमेश्वर के बारे में निष्कर्षों से अधिक और कुछ भी समाहित नहीं होता है जो धार्मिक लक्ष्यार्थ, सामंती अंधविश्वास में जड़ा हुआ होता है और उन सब बातों में जो कल्पित, विचित्र और रहस्यपूर्ण होते हैं और वे परमेश्वर को जानने और परिभाषित करने के तरीके पर उसी ढर्रे में मोहर अंकित करते हैं जो केवल ऊपर स्वर्ग में या आसमान में किसी वृद्ध के होने में विश्वास करते हैं, जबकि परमेश्वर की वास्तविकता, उसकी प्रकृति, उसका स्वभाव, उसकी व्यवहारिक सम्पदा और परमेश्वरत्व जिन बातों का वास्ता में सच्चे परमेश्वर से है; उनकी समझ में नहीं आईं, पूरी तरह से असंगत और पूरी तरह अलग-अलग हैं। इस प्रकार से, हालांकि वे परमेश्वर के वचन और पालन-पोषण में जी रहे हैं, सही मायने में वे फिर भी परमेश्वर के भय और बुराई से दूर रहने के मार्ग पर वास्तविकता में चलने में असमर्थ महसूस कर रहे हैं। इसका सही कारण यह है कि वे कभी भी परमेश्वर के साथ परिचित नहीं हुए, न ही उन्होंने सामान्य सम्बन्ध या संवाद उसके साथ कभी रखा है तो इसलिए उनके लिए यह असम्भव है कि वे परमेश्वर के साथ पारस्परिक समझ को बना सकें या फिर परमेश्वर की आराधना, उसके अनुगमन में या सच्चा विश्वास करने में अपने आप को जागृत रख सकें। यह कि उन्हें इस प्रकार से परमेश्वर के वचनों को आदर देना चाहिए, कि इस प्रकार से वे परमेश्वर को आदर सम्मान दे सकें - इस दृष्टिकोण और नज़रिया ने उन्हें उनके प्रयासों से खाली हाथ लौटने और परमेश्वर के भय तथा बुराई से दूर रहने के मार्ग पर बने रहने के लिए अनन्त के लिए बर्बाद कर दिया। जिस लक्ष्य को वे साध रहे हैं और जिस ओर वे जा रहे हैं, यह बात इसको प्रदर्शित करती है कि अनन्त काल से वे परमेश्वर के शत्रु रहे हैं और यह कि अनन्त काल तक वे कभी भी उद्धार को प्राप्त नहीं कर सकेंगे।
यदि, किसी आदमी ने कई वर्षों तक परमेश्वर का अनुसरण किया और कई सालों तक उसके वचनों के प्रयोजन का आनन्द लिया, उसके अनुसार परमेश्वर की परिभाषा, उसके सार-तत्व में, वैसी ही है जैसे कि कोई व्यक्ति मूर्तियों को आदर देने के लिए उनके आगे अपने आप को साष्टांग झुका देता है, तो यह बात बतलाती है कि इस व्यक्ति ने परमेश्वर के वचन की वास्तविकता को नहीं पाया है। यह इस कारण है किवह साधारण तौर पर परमेश्वर के वचनों में नहीं उतरा और इसी कारण से, वास्तविकता में, सत्यता, आशय और मानवता की मांग होती है, परमेश्वर के वचन में जो कुछ सहज है उससे उसे कुछ लेना-देना नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है कि कोई व्यक्ति परमेश्वर के वचन के सतही अर्थ पर कितनी भी मेहनत से कार्य करे, सब कुछ व्यर्थ हैः क्योंकि जो कुछ वह अनुसरण करता है वे मात्र शब्द ही हैं, इसलिए जो कुछ वह प्राप्त करेगा वे भी मात्र शब्द होंगे। चाहे बोले गए वचन परमेश्वर के द्वारा हों, बाहरी स्वरूप में वह सिर्फ़ कोरे या खाली हैं, जैसे कोई व्यक्ति जीवन में प्रवेश करता है तो ये सभी सत्य अपरिहार्य बन जाते हैं। ये जीवन के जल के झरने बन जाते हैं जो उसे आत्मा और शरीर दोनों में जीवित रहने के योग्य बना देते हैं। ये मनुष्य के जीवित रहने के लिए आवश्यकताओं को उपलब्ध कराते हैं; प्रतिदिन के जीवन को जीने के लिए सिद्धांत और पंथ, मार्ग, लक्ष्य और मार्गदर्शन जिसके द्वारा उसे जीवन जीने की आवश्यकता है ताकि वह उद्धार प्राप्त कर सके;परमेश्वर के सामने जीवित प्राणी के रूप में प्रत्येक सत्य जो उसे प्राप्त करना हैं और प्रत्येक सत्य कि कैसे मनुष्य आज्ञापालन करता और परमेश्वर की आराधना करता है। ये पूरी तरह से गारन्टी की तरह हैं जो मनुष्य के जीवित रहने को सुनिश्चित करती है, ये मनुष्य की प्रतिदिन की रोटी है और ये ऐसे तगड़े समर्थक हैं जो मनुष्य को मज़बूत और खड़े होने के योग्य बनाते हैं। सामान्य मानवजाति के लिए ये सत्य की वास्तविकता में बहुत ही गहरे हैं जब ये जीवित मानवजाति के द्वारा जिये जाते हैं, सत्य में गहरे हैं जिसके माध्यम से मानवजाति भ्रष्टाचार से और शैतान के जाल से बच जाती है, अथाह शिक्षाएं, उपदेश, प्रोत्साहन और सांत्वना से भरपूर, जो रचनाकार अपनी मानवजाति को देता है। यह वह प्रकाश स्तम्भ है जो मनुष्य को सकारात्मकता की समझ के लिए मार्गदर्शित और प्रकाशित करता है, वह गारन्टी है जो यह सुनिश्चित करता है कि मनुष्य इनके अनुसार अपना जीवन जिये और धार्मिक तथा भली बातों में जो कुछ भी है उसे वह अपने अधिकार में कर ले, जिन मापदण्डों के आधार पर लोग, घटनाएं और सभी लक्ष्यों को मापा जाता है और साथ ही साथ दिशाज्ञान को चिन्हित करने वाला जो कि मनुष्य को उद्धार की और ज्योति के मार्ग की ओर ले जाता है। परमेश्वर के वचनों के वास्तविक अनुभवों के आधार पर मनुष्य को सत्य और जीवन को प्रदान किया जाता है; केवल इस में ही वह सामान्य मानवजाति को समझ पाता है, अर्थ पूर्ण जीवन क्या है, एक रचा गया वास्तविक जीव क्या है, परमेश्वर का वास्तविक आज्ञापालन क्या हैः इसी में ही उसे यह समझ में आता है कि उसे किस प्रकार से परमेश्वर की चिन्ता करनी चाहिए, एक रचे हुए जीव की ज़िम्मेदारी कैसे पूर्ण करनी चाहिए, और एक वास्तविक मानव की समानता को कैसे प्राप्त किया जा सकता है; यहीं पर उसे समझ में आता है कि सच्ची आस्था और सच्ची भक्ति क्या है; यहीं पर उसे यह समझ में आता है कि स्वर्ग, पृथ्वी और सभी चीजों का शासक कौन है; यहीं पर उसे समझ में आता है कि अर्थ किन साधनों से वह समस्त रचना पर शासन, अगुवाई और सृष्टि के लिये हर चीज़ की व्यवस्था करता है; और सिर्फ़ यहीं पर उसे समझ में आता है और उन साधनों को ग्रहण कर पाता है जिनके ज़रिये वह सम्पूर्ण सृष्टि का स्वामी अस्तित्व में रहता है, खुद को प्रदर्शित करता है और कार्य करता है...परमेश्वर के वचनों के वास्तविक अनुभवों से दूर, मनुष्य के पास कोई भी वास्तविक ज्ञान या प्रकाशन परमेश्वर के वचनों और सत्य के बारे में नहीं होता है। ऐसा व्यक्ति पूरी तरह से एक जीवित लाश, एक घोंघे के समान है और रचनाकार से जुड़ा हुआ उसका सम्पूर्ण ज्ञान एकदम तुच्छ है। परमेश्वर की दृष्टि में, ऐसे व्यक्ति ने कभी भी उस पर विश्वास नहीं किया, न ही उसका अनुसरण किया और इसलिए परमेश्वर ने उसे न तो विश्वासी और न ही अनुयायी माना, बल्कि एक रचे हुए जीव से भी तुच्छ माना।
एक सच्चा जीव होने के लिए उसे अपने रचनाकार को जानना आवश्यक है, मनुष्य की रचना किस उद्देश्य के लिए की गई है, रचे गये जीव की क्या-क्या ज़िम्मेदारियां हैं और सम्पूर्ण सृष्टि के रचनाकार की आराधना कैसे करनी है। सृष्टिकर्ता के मनोभाव, इच्छाओं और मांगों को समझना, ग्रहण करना, जानना और उनकी परवाह करना आवश्यक है और जिस तरह से रचनाकार चाहता है उसी प्रकार कार्य करना - परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना आवश्यक है।
परमेश्वर का भय मानना क्या है? और बुराई से कैसे दूर रहा जाता है?
"परमेश्वर का भय मानना" का अर्थ अनजान भय और खौफ नहीं है, और न ही बचना, और न ही दूरी बनाना, न ही मूर्तिकरण या अंधविश्वास है। बल्कि यह प्रशंसा, सम्मान, विश्वास, समझ, देखभाल, आज्ञाकरिता, पवित्रीकरण, प्रेम, साथ ही साथ बिना शर्त और बिना शिकायत आराधना, प्रतिदान और समर्पण करना है। परमेश्वर के वास्तविक ज्ञान के बिना, मानवता के पास वास्तविक प्रशंसा, वास्तविक विश्वास, वास्तविक समझ, वास्तविक देखभाल या आज्ञाकारिता नहीं होगी, परन्तु केवल भय और बेचैनी, संदेह, ग़लतफ़हमी, बहाना और टालमटोल होगा; परमेश्वर के वास्तविक ज्ञान के बिना मनुष्य का पवित्रीकरण और वापसी सम्भव नहीं होगी; बिना परमेश्वर के वास्तविक ज्ञान के मानवता वास्तविक आराधना और समर्पण नहीं कर सकेगी, केवल अंधा मूर्तिकरण और अंधविश्वास होगा; बिना परमेश्वर के वास्तविक ज्ञान के सम्भवत: परमेश्वर के मार्ग के अनुसार मानवता कार्य नहीं कर सकेगी, या परमेश्वर का भय नहीं मान पाएगी या बुराई से दूर नहीं हो पाएगी। इसके विपरीत, प्रत्येक गतिविधि और व्यवहार में लगा व्यक्ति विद्रोह और अवज्ञा के साथ भर जायेगा उसके बारे में निंदात्मक आरोप और कलंकमय न्याय और सत्य और परमेश्वर के वचन के सही अर्थ के विरोध में बुराई से भरा आचरण करने लगेगा।
परमेश्वर में वास्तविक भरोसा होने पर मानवता परमेश्वर का अनुगमन करना वास्तव में सीख जाएगी और उस पर निर्भर हो जाएगी; केवल परमेश्वर पर ही असली विश्वास और निर्भरता के द्वारा ही वास्तविक समझ और बोध का ज्ञान होता है; साथ ही साथ परमेश्वर पर वास्तविक बोध के साथ उसके लिये सच्ची देखभाल भी आती है; परमेश्वर की वास्तविक देखभाल के साथ मानवता को सच्ची आज्ञाकारिता से प्राप्त हो सकती है; केवल परमेश्वर की सच्ची आज्ञाकारिता से मानवता को वास्तविक पवित्रीकरण प्राप्त हो सकता है; परमेश्वर के लिए वास्तविक पवित्रीकरण के द्वारा ही मानवता में बिना शर्त और बिना शिकायत प्रदान आ सकता है; केवल वास्तविक भरोसा और निर्भरता के साथ, वास्तविक समझ और देखभाल, वास्तविक आज्ञापालन, वास्तविक पवित्रीकरण और प्रतिदान के द्वारा ही मानवता वास्तविकता में परमेश्वर के स्वभाव और उसके तत्व को जान सकती है और रचयिता की पहचान को जाना जा सकता है; जब वे परमेश्वर को पूरी तरह से जानेंगे तभी मानवता अपने आप को वास्तविक आराधना और समर्पण में जागृत पाई जाएगी। जब वे सृष्टिकर्ता की वास्तविक आराधना और उसके प्रति समर्पण करेंगे तभी वे अपने बुरे मार्गों से फिरने के योग्य बन पाएंगे, अर्थात बुराई से दूर रह पायेंगे।
इस प्रक्रिया का सम्पूर्ण निर्माण "परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना" तथा इसके वस्तु विषय की सम्पूर्णता में परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना है, साथ ही साथ उस मार्ग को पार जाने की आवश्यकता है ताकि परमेश्वर के भय और बुराई से दूर रहने की स्थिति तक पहुंचा जा सके।
परमेश्वर का भय और बुराई से दूर रहना और परमेश्वर को जानना अदृश्य तरीके से एक दूसरे से असंख्य धागों से जुड़ी रहती है और इनके मध्य यह सम्बन्ध स्पष्ट है। यदि एक व्यक्ति बुराई से दूर रहना चाहता है, तो उस व्यक्ति को परमेश्वर का वास्तविक भय होना आवश्यक है; यदि कोई परमेश्वर का वास्तविक भय प्राप्त करना चाहता है, तो उसे परमेश्वर के वास्तविक ज्ञान की आवश्यकता है; यदि कोई परमेश्वर के ज्ञान को प्राप्त करना चाहता है तो उसे सबसे पहले परमेश्वर के वचन का अनुभव करना होगा, उसके वचन की वास्तविकता को प्राप्त करना होगा, उसे परमेश्वर की ताड़ना और अनुशासन को महसूस करना होगा, उसकी ताड़ना और न्याय को महसूस करना होगा; यदि कोई परमेश्वर के वचन का अनुभव करने की इच्छा रखता है तो उसे परमेश्वर के वचन और परमेश्वर से आमना-सामना करना होगा, और उसे परमेश्वर से याचना करनी होगी कि परमेश्वर उसे उसके वचन को अनुभव करने के लिए सम्भावनाओं को बनाए चाहे वे लोगों, घटनाओं या वस्तुओं के माध्यम से कैसी भी परिस्थितियां हों; यदि कोई परमेश्वर के साथ और उसके वचन के साथ आमना-सामना करना चाहता है तो उसके पास एक साधारण और ईमानदार हृदय होना आवश्यक है, सत्य को ग्रहण करने वाला, कष्टों को सहने वाला, बुराई से दूर रहने के लिए दृढ़ निश्चयी और साहसी और एक सच्चा जीव होने के लिए अभिलाषी होना चाहिए...इस प्रकार से, एक-एक कदम बढ़ाते हुए, तुम परमेश्वर की निकटता में बढ़ते जाओगे, तुम्हारा हृदय और भी अधिक शुद्ध होता जाएगा और तुम्हारा जीवन और जीवित रहने का मूल्य, परमेश्वर के ज्ञान के साथ ही साथ और भी अधिक अर्थपूर्ण और भी अधिक उज्जवल होता जाएगा। इस दिन तक, तुम यह महसूस करोगे कि रचनाकार अब एक पहेली नहीं है, कि वह रचनाकार तुम से कभी भी छिपा हुआ नहीं रहा, कि उसने अपना चेहरा कभी भी तुमसे छिपाया नहीं, कि वह तुमसे कभी भी दूर नहीं रहा, कि वह ऐसा नहीं रहा कि तुम उसे अपने विचारों में निरंतर खोजते रहें परन्तु तुम अपनी भावनाओं के माध्यम से उस तक नहीं पहुंच सकते, वह वास्तव और सही में तुम्हारे दायें और बाएं तुम्हारी सुरक्षा के लिए खड़ा है, तुम्हें जीवन दे रहा है और तुम्हारी नियति को नियंत्रित कर रहा है। वह कहीं दूर क्षितिज में नहीं है, और न ही उसने अपने आप को ऊंचाई पर बादलों में कहीं छिपा लिया है। वह तुम्हारे पास ही है, तुम्हारी सभी बातों का संचालन कर रहा है, तुम्हारे पास जो कुछ भी है उसी का है और एक चीज़ जो तुम्हारे पास है वह स्वयं वही है। ऐसा परमेश्वर स्वयं ही तुम्हें हृदय से प्रेम करने, उसे पकड़े रहने, अपने पास बने रहने, उसकी प्रशंसा करने, उसे खोने का भय और कभी भी उसे त्यागने की इच्छा नहीं करने, न कभी भी उसकी अनाज्ञाकारिता या न कभी भी उसका टाल-मटोल करने, या उससे दूर न रखने की अनुमति देता है। तुम्हें सिर्फ़ उसकी देखभाल करनी है, उसकी आज्ञा माननी है, जो कुछ वह देता है उसको प्रतिदान देना है और अपने तुम को उसके प्रभुत्व के अधीन अपने तुम को समर्पित कर देना है। अब तुम्हें कभी भी मार्गदर्शन पाने से, पोषण पाने, निगाह रखने और उसके द्वारा अपने पास रखने से कभी भी मना नहीं किया जाएगा, वह जो भी आज्ञा देता और अभिषेक करने, उसके लिए कभी भी मना नहीं किया जाएगा। तुम्हें सिर्फ़ उसका अनुसरण करना है, उसके साथ साथ उसके दाहिने या बाएं चलना है, तुम्हें यह करना है कि उसे स्वीकार करो क्योंकि वही तुम्हारी ज़िन्दगी है, वही केवल तुम्हारे जीवन का प्रभु और परमेश्वर है।
अंतिम दिनों के मसीह के कथन- संकलन” से अगस्त 18, 2014
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