देह-धारी परमेश्वर के कार्य और आत्मा के कार्य के बीच क्या अंतर है?
संदर्भ के लिए बाइबल के पद:
"मूसा ने कहा, "मुझे अपना तेज दिखा दे। उसने कहा, … तू मेरे मुख का दर्शन नहीं कर सकता; क्योंकि मनुष्य मेरे मुख का दर्शन करके जीवित नहीं रह सकता" (निर्गमन 33:18-20).
"और यहोवा सीनै पर्वत की चोटी पर उतरा; और मूसा को पर्वत की चोटी पर बुलाया, और मूसा ऊपर चढ़ गया। तब यहोवा ने मूसा से कहा, "नीचे उतर के लोगों को चेतावनी दे, कहीं ऐसा न हो कि वे बाड़ा तोड़ के यहोवा के पास देखने को घुसें, और उनमें से बहुत से नष्ट हो जाएँ" (निर्गमन 19:20-21)।
"सब लोग गर्जन और बिजली और नरसिंगे के शब्द सुनते, और धूआँ उठते हुए पर्वत को देखते रहे, और देख के, काँपकर दूर खड़े हो गए; 19और वे मूसा से कहने लगे, "तू ही हम से बातें कर, तब तो हम सुन सकेंगे; परन्तु परमेश्वर हम से बातें न करे, ऐसा न हो कि हम मर जाएँ" (निर्गमन 20:18-19)।
"तब यह आकाशवाणी हुई, मैं ने उसकी महिमा की है, और फिर भी करूँगा।" तब जो लोग खड़े हुए सुन रहे थे उन्होंने कहा कि बादल गरजा। दूसरों ने कहा, "कोई स्वर्गदूत उससे बोला" (युहन्ना 12:28-29)।
परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:
परमेश्वर के द्वारा मनुष्य को सीधे तौर पर पवित्रात्मा के साधनों के माध्यम से या आत्मा के रूप में बचाया नहीं जाता है, क्योंकि उसके आत्मा को मनुष्य के द्वारा न तो देखा जा सकता है और न ही स्पर्श किया जा सकता है, और मनुष्य के द्वारा उस तक पहुँचा नहीं जा सकता है। यदि उसने आत्मा के तरीके से सीधे तौर पर मनुष्य को बचाने का प्रयास किया होता, तो मनुष्य उसके उद्धार को प्राप्त करने में असमर्थ होता। और यदि परमेश्वर सृजित मनुष्य का बाहरी रूप धारण नहीं करता, तो वे इस उद्धार को पाने में असमर्थ होते। क्योंकि मनुष्य किसी भी तरीके से उस तक नहीं पहुँच सकता है, उसी प्रकार जैसे कोई भी मनुष्य यहोवा के बादल के पास नहीं जा सकता था। केवल सृष्टि का एक मनुष्य बनने के द्वारा ही, अर्थात्, अपने वचन को देह में रखकर ही वह मनुष्य बनेगा, वह व्यक्तिगत रूप से वचन के कार्य को उन सभी मनुष्यों में कर सकता है जो उसका अनुसरण करते हैं। केवल तभी मनुष्य स्वयं उसके वचन को सुन सकता है, उसके वचन को देख सकता है, और उसके वचन को ग्रहण कर सकता है, तब इसके माध्यम से पूरी तरह से बचाया जा सकता है। यदि परमेश्वर देह नहीं बना होता, तो किसी भी शरीरी मनुष्य ऐसे बड़े उद्धार को प्राप्त नहीं किया होता, और न ही कोई एक भी मनुष्य बचाया गया होता। यदि परमेश्वर का आत्मा ने सीधे तौर पर मनुष्य के बीच काम किया होता, तो मनुष्य को मार दिया गया होता या शैतान के द्वारा पूरी तरह से बंदी बनाकर ले जाया गया होता क्योंकि मनुष्य परमेश्वर के साथ सम्बद्ध होने में असमर्थ है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "देहधारण का रहस्य (4)" से
यदि परमेश्वर देह नहीं बना होता, तो वह ऐसा पवित्रात्मा बना रहता जो मनुष्यों के लिए अदृश्य और अमूर्त होता। मनुष्य देह वाला प्राणी है, और मनुष्य और परमेश्वर दो अलग-अलग संसारों से सम्बन्धित हैं, और स्वभाव में भिन्न हैं। परमेश्वर का आत्मा देह वाले मनुष्य से बेमेल है, और उनके बीच कोई सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जा सकता है; इसके अतिरिक्त, मनुष्य आत्मा नहीं बन सकता है। वैसे तो, परमेश्वर के आत्मा को प्राणियों में से एक अवश्य बनना चाहिए और अपना मूल काम करना चाहिए। परमेश्वर सबसे ऊँचे स्थान पर चढ़ सकता है और सृष्टि का एक मनुष्य बनकर, कार्य करते हुए और मनुष्य के बीच रहते हुए, अपने आपको विनम्र भी कर सकता है, परन्तु मनुष्य सबसे ऊँचे स्थान पर नहीं चढ़ सकता है और पवित्रात्मा नहीं बन सकता है और वह निम्नतम स्थान में तो बिलकुल भी नहीं उतर सकता है। इसलिए, अपने कार्य को करने के लिए परमेश्वर को देह अवश्य बनना चाहिए। बहुत कुछ जैसा कि प्रथम देहधारण के साथ है, केवल देहधारी परमेश्वर का देह ही सलीब पर चढ़ने के माध्यम से मनुष्य को छुटकारा दे सकता था, जबकि परमेश्वर के आत्मा को मनुष्य के लिए पापबलि के रूप में सलीब पर चढ़ाया जाना सम्भव नहीं था। परमेश्वर मनुष्य के लिए एक पापबलि के रूप में कार्य करने के लिए प्रत्यक्ष रूप से देह बन सकता था, परन्तु मनुष्य उस पापबलि को लेने के लिए प्रत्यक्ष रूप से स्वर्ग में चढ़ नहीं सकता था जिसे परमेश्वर ने उनके लिए तैयार किया था। वैसे तो, मनुष्य को इस उद्धार को लेने के लिए स्वर्ग में चढ़ने देने की बजाए, परमेश्वर को स्वर्ग और पृथ्वी के बीच इधर-उधर अवश्य आना-जाना चाहिए, क्योंकि मनुष्य पतित हो चुका था और स्वर्ग पर चढ़ नहीं सकता था, और पापबलि को तो बिलकुल भी प्राप्त नहीं कर सकता था। इसलिए, यीशु के लिए मनुष्यों के बीच आना और व्यक्तिगत रूप से उस कार्य को करना आवश्यक था जिसे मनुष्य के द्वारा सरलता से पूरा नहीं किया जा सकता था। हर बार जब परमेश्वर देह बनता है, तब ऐसा करना नितान्त आवश्यक था। यदि किसी भी चरण को परमेश्वर के आत्मा के द्वारा सीधे तौर पर सम्पन्न किया जा सकता, तो उसने देहधारी होने के अनादर को सहन नहीं किया होता।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "देहधारण का रहस्य (4)" से
इसलिए यदि यह कार्य आत्मा द्वारा किया जाता-यदि परमेश्वर देहधारी नहीं बना होता, और इसके बजाय आत्मा ने गड़गड़ाहट के माध्यम से सीधे बात की होती ताकि मनुष्य के पास उससे संपर्क करने का कोई रास्ता नहीं होता, तो क्या मनुष्य उसके स्वभाव को जान पाता? यदि केवल पवित्रात्मा ने कार्य किया होता, तो मनुष्य के पास उसके स्वभाव को जानने का कोई तरीका नहीं होता। लोग केवल तभी परमेश्वर के स्वभाव को अपनी आँखों से देख सकते हैं जब वह देह बनता है, जब वचन देह में प्रकट होता है, और वह अपना संपूर्ण स्वभाव देह के माध्यम से व्यक्त करता है। परमेश्वर वास्तव में मनुष्यों के बीच रहता है। वह मूर्त है; मनुष्य वास्तव में उसके स्वभाव और उसके स्वरूप के साथ संलग्न हो सकता है; केवल इसी तरह से मनुष्य वास्तव में उसे जान सकता है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के कार्य का दर्शन (3)" से
यद्यपि देह में किए गए परमेश्वर के कार्य में अनेक अकल्पनीय मुश्किलें शामिल होती हैं, फिर भी वे प्रभाव जिन्हें वह अंततः हासिल करता है वे उन कार्यों से कहीं बढ़कर होते हैं जिन्हें आत्मा के द्वारा सीधे तौर पर किया जाता है। देह के कार्य में काफी कठिनाईयां साथ में जुड़ी होती हैं, और देह आत्मा के समान वैसी ही बड़ी पहचान को धारण नहीं कर सकता है, और आत्मा के समान उन्हीं अलौकिक कार्यों को क्रियान्वित नहीं कर सकता है, और वह आत्मा के समान उसी अधिकार को तो बिलकुल भी धारण नहीं कर सकता है। फिर भी इस साधारण देह के द्वारा किए गए कार्य का मूल-तत्व आत्मा के द्वारा सीधे तौर पर किए गए कार्य से कहीं अधिक श्रेष्ठ है, और यह देह स्वयं ही मनुष्य की समस्त आवश्यकताओं का उत्तर है। क्योंकि उनके लिए जिन्हें बचाया जाना है, आत्मा की उपयोगिता का मूल्य देह की अपेक्षा कहीं अधिक निम्न है: आत्मा का कार्य समूचे विश्व, सारे पहाड़ों, नदियों, झीलों एवं महासागरों को ढंकने में सक्षम है, फिर भी देह का कार्य और अधिक प्रभावकारी ढंग से प्रत्येक व्यक्ति से सम्बन्ध रखता है जिसके साथ उसका सम्पर्क है। इसके अलावा, मनुष्य के द्वारा परमेश्वर की देह को उसके स्पर्श्गम्य आकार के साथ बेहतर ढंग से समझा जा सकता है और उस पर भरोसा किया जा सकता है, और यह परमेश्वर के विषय में मनुष्य के ज्ञान को और गहरा कर सकता है, और यह मनुष्य पर परमेश्वर के वास्तविक कार्यों का और अधिक गंभीर प्रभाव छोड़ सकता है। आत्मा का कार्य रहस्य से ढका हुआ है, इसकी गहराई को मापना नश्वर प्राणियों के लिए कठिन है, और यहाँ तक कि उनके लिए उन्हें देखना और भी अधिक मुश्किल है, और इस प्रकार वे मात्र खोखली कल्पनाओं पर भरोसा रख सकते हैं। फिर भी, देह का कार्य साधारण है, यह वास्तविकता पर आधारित है, और समृद्ध बुद्धि धारण किए हुए है, और ऐसा तथ्य है जिसे मनुष्य की शारीरिक आँख के द्वारा देखा जा सकता है; मनुष्य परमेश्वर के कार्य की बुद्धिमत्ता का व्यक्तिगत रूप से अनुभव कर सकता है, और उसे अपनी ढेर सारी कल्पना को काम में लगाने की आवश्यकता नहीं है। यह देह में परमेश्वर के कार्य की सटीकता एवं उसका वास्तविक मूल्य है। आत्मा केवल उन कार्यों को कर सकता है जो मनुष्य के लिए अदृश्य हैं और उसके लिए कल्पना करने हेतु कठिन हैं, उदाहरण के लिए आत्मा की प्रबुद्धता, आत्मा द्वारा हृदय स्पर्श करना, और आत्मा का मार्गदर्शन, परन्तु मनुष्य के लिए जिसके पास एक मस्तिष्क है, ये कोई स्पष्ट अर्थ प्रदान नहीं करते हैं। वे केवल हृदय स्पर्शी, या एक विस्तृत अर्थ प्रदान करते हैं, और वचनों से कोई निर्देश नहीं दे सकते हैं। फिर भी, देह में परमेश्वर का कार्य बहुत ही अलग होता है: उसमें वचनों का सटीक मार्गदर्शन होता है, उसमें स्पष्ट इच्छा होती है, और उसमें स्पष्ट अपेक्षित उद्देश्य होते हैं। और इस प्रकार मनुष्य को अंधेरे में यहाँ वहाँ टटोलने, या अपनी कल्पना को काम में लगाने की कोई आवश्यकता नहीं होती है, और अंदाज़ा लगाने की तो बिलकुल भी आवश्यकता नहीं होती है। यह देह में किए गए कार्य की स्पष्टता है, और आत्मा के कार्य से बिलकुल अलग है। आत्मा का कार्य केवल एक सीमित दायरे तक उपयुक्त होता है, और देह के कार्य का स्थान नहीं ले सकता है। देह का कार्य मनुष्य को आत्मा के कार्य की अपेक्षा कहीं अधिक सटीक एवं आवश्यक लक्ष्य और कहीं अधिक वास्तविक, एवं मूल्यवान ज्ञान प्रदान करता है। वह कार्य जो भ्रष्ट मनुष्य के लिए सबसे अधिक मूल्य रखता है वह ऐसा कार्य है जो सटीक वचनों, एवं अनुसरण करने के लिए स्पष्ट लक्ष्यों को प्रदान करता है, और जिसे देखा एवं स्पर्श किया जा सकता है। केवल वास्तविकता से सम्बन्धित कार्य एवं समयानुसार मार्गदर्शन ही मनुष्य की अभिरुचियों के लिए उपयुक्त होते हैं, और केवल वास्तविक कार्य ही मनुष्य को उसके भ्रष्ट एवं दूषित स्वभाव से बचा सकता है। इसे केवल देहधारी परमेश्वर के द्वारा ही हासिल किया जा सकता है; केवल देहधारी परमेश्वर ही मनुष्य को उसके पूर्व के भ्रष्ट एवं दूषित स्वभाव से बचा सकता है। यद्यपि आत्मा परमेश्वर का अंतर्निहित मूल-तत्व है, फिर भी ऐसे कार्य को केवल उसके देह के द्वारा ही किया जा सकता है। यदि आत्मा अकेले ही कार्य करता, तब उसके कार्य का प्रभावशाली होना संभव नहीं होता-यह एक स्पष्ट सच्चाई है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "भ्रष्ट मानवजाति को देह धारण किए हुए परमेश्वर के उद्धार की अत्यधिक आवश्यकता है" से
क्योंकि हर कोई जो सत्य की खोज करता है और परमेश्वर के प्रकट होने की लालसा करता है, आत्मा का कार्य केवल हृदय स्पर्श या प्रकाशन, और अद्भुतता का एहसास प्रदान कर सकता है जो अवर्णनीय एवं अकल्पनीय है, और ऐसा एहसास प्रदान करता है कि यह महान, सर्वोपरि, एवं प्रशंसनीय है, फिर भी सभी के लिए अप्राप्य एवं असाध्य भी है। मनुष्य एवं परमेश्वर का आत्मा एक दूसरे को केवल दूर से ही देख सकते हैं, मानो उनके बीच एक बड़ी दूरी है, और वे कभी भी एक समान नहीं हो सकते हैं, मानो किसी अदृश्य विभाजन के द्वारा अलग किए गए हों। वास्तव में, यह एक दृष्टि भ्रम है जिसे आत्मा के द्वारा मनुष्य को दिया गया है, यह इसलिए है क्योंकि आत्मा एवं मनुष्य दोनों एक ही किस्म के नहीं हैं, और आत्मा एवं मनुष्य इसी संसार में एक साथ अस्तित्व में नहीं रह सकेंगे, और इसलिए क्योंकि आत्मा मनुष्य की किसी भी चीज़ को धारण नहीं करता है। अतः मनुष्य को आत्मा की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि आत्मा सीधे तौर पर वह कार्य नहीं कर सकता है जिसकी मनुष्य को सबसे अधिक आवश्यकता होती है। देह का काम मनुष्य को अनुसरण करने के लिए वास्तविक उद्देश्य देता है, स्पष्ट वचन, और एक एहसास देता है कि परमेश्वर वास्तविक एवं सामान्य है, यह कि वह दीन एवं साधारण है। यद्यपि मनुष्य उसका भय मान सकता है, फिर भी अधिकांश लोगों के लिए उससे सम्बन्ध रखना आसान है: मनुष्य उसके चेहरे को देख सकता है, और उसकी आवाज़ को सुन सकता है, और दूर से उसे देखने की आवश्यकता नहीं है। यह देह महसूस करता है कि वह मनुष्य तक पहुंच सकता है, एवं वह दूर, या अथाह नहीं है, परन्तु दृश्यमान एवं स्पर्शगम्य है, क्योंकि यह देह मनुष्य के समान इसी संसार में है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "भ्रष्ट मानवजाति को देह धारण किए हुए परमेश्वर के उद्धार की अत्यधिक आवश्यकता है" से
जब परमेश्वर ने देहधारण नहीं किया था, तब जो कुछ वह कहता था लोग उसे काफी हद तक नहीं समझते थे क्योंकि वह पूर्ण दिव्यता से आया था। वह दृष्टिकोण और सन्दर्भ जिन के बारे में वह कहता था वह मानव जाति के लिए अदृश्य और अगम्य था; वह आध्यात्मिक आयाम से प्रकट होता था जिसे लोग समझ नहीं सकते थे। ऐसे लोग जिन्होंने देह में जीवन बिताया था, वे आध्यात्मिक आयाम से होकर गुज़र नहीं सकते थे। परन्तु परमेश्वर के देहधारण के बाद, उसने मनुष्यों से मानवीय दृष्टिकोण से बात की, और वह आध्यात्मिक आयाम के दायरे से बाहर आया और उस से आगे बढ़ गया था। वह अपने दिव्य स्वभाव, इच्छा, और प्रवृत्ति को प्रकट कर सकता था, उन चीज़ों के द्वारा जिसकी कल्पना मनुष्य कर सकते थे और उन चीज़ों के द्वारा जिन्हें उन्होंने अपने जीवन में देखा और सामना किया था, और ऐसी पद्धतियों के प्रयोग के द्वारा जिन्हें मनुष्य स्वीकार कर सकते थे, एक ऐसी भाषा में जिसे वे समझ सकते थे, और ऐसे ज्ञान के द्वारा जिस का वे आभास कर सकते थे, ताकि मानवजाति को उस मात्रा तक जितना वे सह सकते थे परमेश्वर को समझने और जानने, और उनकी क्षमता के दायरे के भीतर उसके इरादे और उसके अपेक्षित ऊँचे स्तर को बूझने की अनुमति दे सके। यह मानवता मे परमेश्वर के कार्य की पद्धति और सिद्धांत थे। यद्यपि देह में होकर कार्य करने से परमेश्वर के तरीकों और सिद्धांतोंको मुख्यतः उसकी मानवता के द्वारा या उस में होकर हासिल किया गया था, फिर भी इस ने सचमुच में ऐसे परिणामों को हासिल किया जिन्हें सीधे ईश्वरीयता में होकर कार्य करने से हासिल नहीं किया जा सकता था।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर III" से
यह परमेश्वर के देहधारण का लाभ थाः वह मानव जाति के ज्ञान का लाभ उठा सकता था और लोगों से बात करने, और अपनी इच्छा को प्रकट करने के लिए मानवीय भाषा का उपयोग कर सकता था। उसने मनुष्यों के लिए अपनी गहरी, और ईश्वरीय भाषा की व्याख्या की एवं अनुवाद किया जिसे मानवीय भाषा, और मानवीय तरीके से समझने में लोगों को संघर्ष करना पड़ता था। इस से लोगों को उस की इच्छा को समझने में और यह जानने में सहायता मिली कि वह क्या करना चाहता था। वह मानवीय भाषा का प्रयोग करके, मानवीय दृष्टिकोण से लोगों के साथ वार्तालाप कर सकता था, और साथ ही वह उस तरीके से लोगों से बातचीत कर सकता था जिसे वे समझ सकते थे। वह मानवीय भाषा और ज्ञान का उपयोग कर के बातचीत और काम कर सकता था जिस से लोग परमेश्वर की करूणा और नज़दीकी का एहसास कर सकते थे, जिस से वे उस के हृदय को देख सकते थे।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर III" से
आत्मा के द्वारा किए गए कार्य को सूचित किया गया है एवं यह अथाह है, और यह मनुष्य के लिए भय योग्य एवं अगम्य है; उद्धार के कार्य को सीधे तौर पर करने के लिए आत्मा उपयुक्त नहीं है, और मनुष्य को सीधे तौर पर जीवन प्रदान करने के लिए उपयुक्त नहीं है। मनुष्य के लिए सबसे अधिक उपयुक्त यह है कि आत्मा के कार्य को सुगमता (पहुंच) में रूपान्तरित कर दिया जाए जो मनुष्य के करीब हो, कहने का तात्पर्य है, जो मनुष्य के लिए अत्यंत उपयोगी है वह यह है कि परमेश्वर अपने कार्य को करने के लिए एक साधारण एवं सामान्य व्यक्ति बन जाए। यह परमेश्वर के लिए आवश्यक है कि वह आत्मा के कार्य का स्थान लेने के लिए देहधारण करे, और मनुष्य के लिए, कार्य करने हेतु परमेश्वर के लिए कोई और उपयुक्त मार्ग नहीं है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "भ्रष्ट मानवजाति को देह धारण किए हुए परमेश्वर के उद्धार की अत्यधिक आवश्यकता है" से
यदि परमेश्वर का आत्मा मनुष्यों से सीधे तौर पर बात करता, तो वे सब उस वचन के प्रति समर्पित हो जाते, प्रकाशन के वचनों के बिना नीचे गिर जाते, बिलकुल वैसे ही जैसे पौलुस ज्योति के मध्य भूमि पर गिर गया था जब उसने दमिश्क की यात्रा की थी। यदि परमेश्वर लगातार इसी तरीके से काम करता, तो मनुष्य वचन के द्वारा न्याय के माध्यम से अपने स्वयं के भ्रष्ट स्वभाव को जानने और उद्धार प्राप्त करने में कभी समर्थ नहीं होता। केवल देह बनने के माध्यम से ही वह व्यक्तिगत रूप से अपने वचनों को सभी के कानों तक पहुँचा सकता है ताकि वे सभी जिनके पास कान हैं उसके वचनों को सुन सकें और वचन के द्वारा न्याय के उसके कार्य को प्राप्त कर सकें। उसके वचन के द्वारा प्राप्त किया गया परिणाम सिर्फ ऐसा ही है, पवित्रात्मा के आविर्भाव के बजाए जो मनुष्य को भयभीत करके समर्पण करवाता है। केवल ऐसे ही व्यावहारिक और असाधारण कार्य के माध्यम से ही मनुष्य के पुराने स्वभाव को, जो अनेक वर्षों से भीतर गहराई में छिपा हुआ है, पूरी तरह से प्रकट किया जा सकता है ताकि मनुष्य उसे पहचाने सके और उसे बदलवा सके। यह देहधारी परमेश्वर का व्यावहारिक कार्य है; वह वचन के द्वारा मनुष्य पर न्याय के परिणामों को प्राप्त करने के लिए व्यावहारिक तरीके से बोलता है और न्याय को निष्पादित करता है। यह देहधारी परमेश्वर का अधिकार है और परमेश्वर के देहधारण का महत्व है। ... वह देहधारी हो गया क्योंकि देह भी अधिकार धारण कर सकता है, और वह एक व्यावहारिक तरीके से मनुष्यों के बीच कार्य करने में सक्षम है, जो मनुष्यों के लिए दृष्टिगोचर और मूर्त है। ऐसा कार्य परमेश्वर के आत्मा के द्वारा सीधे तौर पर किए गए किसी भी कार्य की अपेक्षा कहीं अधिक वास्तविक है जो सारे अधिकार को धारण करता है, और इसके परिणाम भी स्पष्ट हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि उसका देहधारी देह व्यावहारिक तरीके से बोल और कार्य कर सकता है; उसकी देह का बाहरी रूप कोई अधिकार धारण नहीं करता है और मनुष्य के द्वारा उस तक पहुँचा जा सकता है। उसका सार अधिकार को वहन करता है, किन्तु उसका अधिकार किसी के लिए भी दृष्टिगोचर नहीं है। जब वह बोलता और कार्य करता है, तो मनुष्य उसके अधिकार के अस्तित्व का पता लगाने में असमर्थ होता है; यह उसके वास्तविक कार्य के लिए और भी अधिक अनुकूल है। और इस प्रकार के सभी कार्य परिणामों को प्राप्त कर सकते हैं। भले ही कोई मनुष्य यह एहसास नहीं करता है कि परमेश्वर अधिकार रखता या यह नहीं देखता है कि परमेश्वर का अपमान नहीं किया जा सकता है या परमेश्वर के कोप को नहीं देखता है, फिर भी परमेश्वर के छिपे हुए अधिकार और कोप और सार्वजनिक भाषण के माध्यम से, परमेश्वर अपने वचनों के अभीष्ट परिणामों को प्राप्त कर लेता है। दूसरे शब्दों में, उसकी आवाज़ के लहजे, भाषण की कठोरता, और उसके वचनों की समस्त बुद्धि के माध्यम से, मनुष्य सर्वथा आश्वस्त हो जाता है। इस तरह से, मनुष्य देहधारी परमेश्वर के वचन के प्रति समर्पण करता है, जिसके पास प्रकट रूप में कोई अधिकार नहीं है, जिसके परिणामस्वरूप मनुष्य के लिए उद्धार के अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है। यह उसके देहधारण का एक और महत्व है: अधिक वास्तविक रूप से बोलना और अपने वचनों को अनुमति देना कि मनुष्य पर प्रभाव डालें ताकि वे परमेश्वर के वचन की सामर्थ्य के गवाह बनें। अतः यह कार्य, यदि देहधारण के माध्यम से नहीं किया जाए, तो थोड़े से भी परिणामों को प्राप्त नहीं करेगा और पापियों का पूरी तरह से उद्धार करने में समर्थ नहीं होगा।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "देहधारण का रहस्य (4)" से
क्योंकि वह मनुष्य है जिसका न्याय किया जाता है, मनुष्य जो हाड़-मांस का है और उसे भ्रष्ट किया जा चुका है, और यह शैतान का आत्मा नहीं है जिसका सीधे तौर पर न्याय किया जाता है, न्याय के कार्य को आत्मिक संसार में सम्पन्न नहीं किया जाता है, परन्तु मनुष्यों के बीच किया जाता है। कोई भी मनुष्य की देह की भ्रष्टता का न्याय करने के लिए देह में प्रगट परमेश्वर की अपेक्षा अधिक उपयुक्त, एवं योग्य नहीं है। यदि न्याय सीधे तौर पर परमेश्वर के आत्मा के द्वारा किया गया होता, तो यह सभी के द्वारा स्वेच्छा से स्वीकार्य नहीं होता। इसके अतिरिक्त, ऐसे कार्य को स्वीकार करना मनुष्य के लिए कठिन होगा, क्योंकि आत्मा मनुष्य के साथ आमने-सामने आने में असमर्थ है, और इस कारण से, प्रभाव तत्काल नहीं होंगे, और मनुष्य परमेश्वर के अनुल्लंघनीय स्वभाव को साफ-साफ देखने में बिलकुल भी सक्षम नहीं होगा। यदि देह में प्रगट परमेश्वर मानवजाति की भ्रष्टता का न्याय करे केवल तभी शैतान को पूरी तरह से हाराया जा सकता है। ... यदि इस कार्य को परमेश्वर के आत्मा के द्वारा किया जाता, तो एक छोटा सा कीड़ा (लीख) भी शैतान पर विजय नहीं पाता। आत्मा स्वभाव से ही नश्वर प्राणियों कहीं अधिक ऊँचा है, और परमेश्वर का आत्मा स्वभाव से ही पवित्र है, और देह के ऊपर जयवंत है। यदि आत्मा ने इस कार्य को सीधे तौर पर किया होता, तो वह मनुष्य की सारी आनाज्ञाकारिता का न्याय करने में सक्षम नहीं होता, और मनुष्य की सारी अधार्मिकता को प्रगट नहीं कर सकता था। क्योंकि परमेश्वर के विषय में मनुष्य की धारणाओं के माध्यम से न्याय के कार्य को भी सम्पन्न किया जाता है, और मनुष्य के पास कभी भी आत्मा के विषय में कोई धारणाएं नहीं है, और इस प्रकार आत्मा मनुष्य की अधार्मिकता को बेहतर तरीके से प्रगट करने में असमर्थ है, और ऐसी अधार्मिकता को पूरी तरह से उजागर करने में तो बिलकुल भी समर्थ नहीं है। देहधारी परमेश्वर उन सब लोगों का शत्रु है जो उसे नहीं जानते हैं। उसके प्रति मनुष्य की धारणाओं एवं विरोध का न्याय करने के माध्यम से, वह मानवजाति की सारी अनाज्ञाकारिता का खुलासा करता है। देह में उसके कार्य के प्रभाव आत्मा के कार्य की अपेक्षा अधिक प्रगट हैं। और इस प्रकार, समस्त मानवजाति के न्याय को आत्मा के द्वारा सीधे तौर पर सम्पन्न नहीं किया जाता है, बल्कि यह देहधारी परमेश्वर का कार्य है। देह में प्रगट परमेश्वर को मनुष्य के द्वारा देखा एवं छुआ जा सकता है, और देह में प्रगट परमेश्वर पूरी तरह से मनुष्य पर विजय पा सकता है। देहधारी परमेश्वर के साथ अपने रिश्ते में, मनुष्य विरोध से आज्ञाकारिता की ओर, सताव से स्वीकार्यता की ओर, सोच विचार से ज्ञान की ओर, और तिरस्कार से प्रेम की ओर प्रगति करता है। ये देहधारी परमेश्वर के कार्य के प्रभाव हैं। मनुष्य को केवल परमेश्वर के न्याय की स्वीकार्यता के माध्यम से ही बचाया जाता है, मनुष्य केवल परमेश्वर के मुँह के वचनों के माध्यम से ही धीरे धीरे उसे जानने लगता है, परमेश्वर के प्रति उसके विरोध के दौरान उसके द्वारा मनुष्य पर विजय पाया जाता है, और परमेश्वर की ताड़ना की स्वीकार्यता के दौरान वह उससे जीवन की आपूर्ति प्राप्त करता है। यह समस्त कार्य देहधारी परमेश्वर के कार्य हैं, और आत्मा के रूप में उसकी पहचान में परमेश्वर का कार्य नहीं है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "भ्रष्ट मानवजाति को देह धारण किए हुए परमेश्वर के उद्धार की अत्यधिक आवश्यकता है" से
फिर भी, एक सच्चाई है जिसे तुम नहीं जानते हो: जब मनुष्य मसीह को देखता है तब उसका भ्रष्ट स्वभाव, विद्रोह और प्रतिरोध का खुलासा हो जाता है, और जिस विद्रोह और प्रतिरोध का खुलासा ऐसे अवसर पर होता है वह किसी अन्य समय की अपेक्षा कहीं ज़्यादा पूर्ण और निश्चित होता है। मसीह मनुष्य का पुत्र है और सामान्य मानवता रखता है जिस कारण मनुष्य न तो उसका सम्मान करता और न ही आदर करता है। परमेश्वर देह में रहता है इस कारण से मनुष्य का विद्रोह पूरी तरह और स्पष्ट रूप से प्रकाश में लाया जाता है। अतः मैं कहता हूँ कि मसीह के आगमन ने मानवजाति के सारे विद्रोह को खोज निकाला है और मानवजाति के स्वभाव को बहुत ही स्पष्ट रूप से दृश्य बना दिया है। इसे कहते हैं "लालच देकर एक बाघ को पहाड़ के नीचे ले आना" और "लालच देकर एक भेड़िए को गुफा से बाहर ले आना।"
"वचन देह में प्रकट होता है" से "वे जो मसीह से असंगत हैं निश्चय ही परमेश्वर के विरोधी हैं" से
जब देहधारी परमेश्वर आधिकारिक रूप से अपना कार्य करता है तो मनुष्य की धारणाओं का भेद खुल जाता है, क्योंकि देहधारी परमेश्वर की साधारणता एवं वास्तविकता मनुष्य की कल्पना में अस्पष्ट एवं अलौकिक परमेश्वर के विपरीत है। मनुष्य की मूल धारणाओं को केवल देहधारी परमेश्वर से उनके अन्तर के माध्यम से ही प्रगट किया जा सकता है। देहधारी परमेश्वर से तुलना किए बगैर, मनुष्य की धारणाओं को प्रगट नहीं किया जा सकता था; दूसरे शब्दों में, वास्तविकता के अन्तर के बगैर अस्पष्ट चीज़ों को प्रगट नहीं किया जा सकता था। इस कार्य को करने के लिए कोई भी शब्दों का प्रयोग करने में सक्षम नहीं है, और कोई भी शब्दों का उपयोग करके इस कार्य को स्पष्टता से व्यक्त करने में सक्षम नहीं है। केवल स्वयं परमेश्वर ही अपना खुद का कार्य कर सकता है, और कोई अन्य उसके स्थान पर इस कार्य को नहीं कर सकता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि मनुष्य की भाषा कितनी समृद्ध है, वह परमेश्वर की वास्तविकता एवं साधारणता को स्पष्टता से व्यक्त करने में असमर्थ है। मनुष्य केवल और अधिक व्यावहारिकता से परमेश्वर को जान सकता है, और केवल उसे और अधिक साफ साफ देख सकता है, यदि परमेश्वर व्यक्तिगत तौर पर मनुष्य के मध्य कार्य करे और पूरी तरह से अपने स्वरूप एवं अपने अस्तित्व को प्रगट करे। यह प्रभाव किसी भी शारीरिक मनुष्य के द्वारा हासिल नहीं किया जा सकता है। निश्चित रूप से, परमेश्वर का आत्मा भी इस प्रभाव को हासिल करने में असमर्थ है। परमेश्वर भ्रष्ट मनुष्य को शैतान के प्रभाव से बचा सकता है, परन्तु इस कार्य को सीधे तौर पर परमेश्वर के आत्मा के द्वारा पूरा नहीं किया जा सकता है, इसके बजाए, इसे केवल उस देह के द्वारा किया जा सकता है जिसे परमेश्वर के आत्मा ने पहना है, और परमेश्वर के देहधारी शरीर के द्वारा किया जा सकता है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "वे जो मसीह से असंगत हैं निश्चय ही परमेश्वर के विरोधी हैं" से
देह में किए गए उसके कार्य के विषय में सबसे अच्छी बात यह है कि वह सटीक वचनों एवं उपदेशों को, और मानवजाति के लिए अपनी सटीक इच्छा को उन लोगों के लिए छोड़ सकता है जो उसका अनुसरण करते हैं, ताकि बाद में उसके अनुयायी देह में किए गए उसके समस्त कार्य और समूची मानवजाति के लिए उसकी इच्छा को अत्यधिक सटीकता एवं अत्यंत ठोस रूप में उन लोगों तक पहुंचा सकते हैं जो इस मार्ग को स्वीकार करते हैं। केवल मनुष्य के बीच देह में प्रगट परमेश्वर का कार्य ही सचमुच में परमेश्वर के अस्तित्व और मनुष्य के साथ रहने के तथ्य को पूरा करता है। केवल यह कार्य ही परमेश्वर के मुख को देखने, परमेश्वर के कार्य की गवाही देने, और परमेश्वर के व्यक्तिगत वचन को सुनने हेतु मनुष्य की इच्छा को पूरा करता है। देहधारी परमेश्वर उस युग को अन्त की ओर लाता है जब सिर्फ यहोवा की पीठ ही मानवजाति को दिखाई दी थी, और साथ ही अस्पष्ट परमेश्वर में मानवजाति के विश्वास का भी समापन करता है। विशेष रूप में, अंतिम देहधारी परमेश्वर का कार्य सारी मानवजाति को एक ऐसे युग में लाता है जो और अधिक वास्तविक, और अधिक व्यावहारिक, एवं और अधिक मनोहर है। वह न केवल व्यवस्था एवं सिद्धान्त के युग का अन्त करता है; बल्कि अति महत्वपूर्ण रूप से, वह मानवजाति पर ऐसे परमेश्वर को प्रगट करता है जो वास्तविक एवं साधारण है, जो धर्मी एवं पवित्र है, जो प्रबंधकीय योजना के कार्य को चालू करता है और मानवजाति के रहस्यों एवं मंज़िल को प्रदर्शित करता है, जिसने मानवजाति को सृजा था और प्रबंधकीय कार्य को अन्त की ओर ले जाता है, और जो हज़ारों वर्षों से छिपा हुआ है। वह अस्पष्टता के युग को सम्पूर्ण अन्त की ओर ले जाता है, वह उस युग का अन्त करता है जिसमें समूची मानवजाति परमेश्वर के मुख को खोजने की इच्छा करती थी परन्तु वह ऐसा करने में असमर्थ थी, वह ऐसे युग का अन्त करता है जिसमें समूची मानवजाति शैतान की सेवा करती थी, और समस्त मानवजाति की अगुवाई पूरी तरह से एक नए विशेष काल (युग) में करता है। यह सब परमेश्वर के आत्मा के बजाए देह में प्रगट परमेश्वर के कार्य का परिणाम है। जब परमेश्वर अपनी देह में कार्य करता है, तो ऐसे लोग जो उसका अनुसरण करते हैं वे आगे से उन अस्पष्ट एवं संदिग्ध चीज़ों को खोजते एवं टटोलते नहीं हैं, और अस्पष्ट परमेश्वर की इच्छा का अन्दाज़ा लगाना बन्द कर देते हैं। जब परमेश्वर देह में अपने कार्य को फैलाता है, तो ऐसे लोग जो उसका अनुसरण करते हैं वे उस कार्य को सभी मसीही समुदायों एवं मतों में आगे पहुंचाएंगे जिसे उसने देह में किया है, और वे उसके सभी वचनों को समूची मानवजाति के युगों से कहेंगे। सब कुछ जिसे उन लोगों के द्वारा सुना गया है जिन्होंने उसके सुसमाचार को प्राप्त किया है वे उसके कार्य के तथ्य होंगे, ऐसी चीज़ें होंगीं जिन्हें मनुष्य के द्वारा व्यक्तिगत रूप से देखा एवं सुना गया है, और तथ्य होंगे और झूठी शिक्षा नहीं होगी। ये तथ्य ऐसे प्रमाण हैं जिनके तहत वह उस कार्य को फैलाता है, और वे ऐसे यन्त्र हैं जिन्हें वह उस कार्य को फैलाने में इस्तेमाल करता है। तथ्यों की मौजूदगी के बगैर, उसका सुसमाचार सभी देशों एवं सभी स्थानों तक नहीं फैलेगा; तथ्यों के बिना किन्तु केवल मनुष्यों की कल्पनाओं के साथ, वह समूचे संसार पर विजय पाने के कार्य को करने में कभी सक्षम नहीं होगा। आत्मा मनुष्य के लिए अस्पृश्य है, और मनुष्य के लिए अदृश्य है, और आत्मा का कार्य मनुष्य के लिए परमेश्वर के कार्य के विषय में और कोई प्रमाण एवं तथ्यों को छोड़ने में असमर्थ है। मनुष्य परमेश्वर के सच्चे चेहरे को कभी नहीं देख पाएगा, और वह हमेशा ऐसे अस्पष्ट परमेश्वर में विश्वास करता रहेगा जो अस्तित्व में है ही नहीं। मनुष्य कभी परमेश्वर के मुख को नहीं देख पाएगा, न ही मनुष्य परमेश्वर के द्वारा व्यक्तिगत रूप से कहे गए वचनों को कभी सुन पाएगा। मनुष्य की कल्पनाएं, आखिरकार, खोखली होती हैं, और परमेश्वर के सच्चे चेहरे का स्थान नहीं ले सकती हैं; मनुष्य के द्वारा परमेश्वर के अंतर्निहित स्वभाव, और स्वयं परमेश्वर के कार्य की नकल (रूप धारण) नहीं की जा सकती है। स्वर्ग के अदृश्य परमेश्वर और उसके कार्य को केवल देहधारी परमेश्वर के द्वारा ही पृथ्वी पर लाया जा सकता है जो मनुष्य के बीच में व्यक्तिगत रूप से अपना कार्य करता है। यह सबसे आदर्श तरीका है जिसके अंतर्गत परमेश्वर मनुष्य पर प्रगट होता है, जिसके अंतर्गत मनुष्य परमेश्वर को देखता है और परमेश्वर के असली चेहरे को जानने लगता है, और इसे किसी देह रहित परमेश्वर के द्वारा हासिल नहीं किया जा सकता है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "वे जो मसीह से असंगत हैं निश्चय ही परमेश्वर के विरोधी हैं" से
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