3.6.19

परमेश्वर के कार्य के तीनों चरणों में से प्रत्येक के उद्देश्य और महत्व को जानना।

अध्याय 3 तुम्हें परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों की सच्चाईयों के बारे में अवश्य जानना चाहिए?

सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही एकमात्र सच्चा परमेश्वर है जिसने स्वर्ग और पृथ्वी और सभी चीजों को बनाया है
3. परमेश्वर के कार्य के तीनों चरणों में से प्रत्येक के उद्देश्य और महत्व को जानना।
परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:
इस्राएल में यहोवा के कार्य के महत्व, उद्देश्य, और कदम, पूरी पृथ्वी पर उसके कार्य को आरम्भ करने के लिए थे, जो धीरे-धीरे इस्राएल के केन्द्र से अन्य जातियों के राष्ट्रों में फैलने लगा। यही वह सिद्धांत है जिसके अनुसार वह पूरे विश्व में कार्य करता है—एक प्रतिमान स्थापना करना, और तब तक उसे फैलाना जब तक कि विश्व के सभी लोग उसके सुसमाचार को ग्रहण न कर लें। प्रथम इस्राएली नूह के वंशज थे। इन लोगों के पास मात्र यहोवा की श्वास थी, और वे जीवन की मूल आवश्यकताओं का ध्यान रख सकते थे, परन्तु वे नहीं जानते थे कि यहोवा किस प्रकार का परमेश्वर था, न ही वे मनुष्य के लिए उसकी इच्छा को जानते थे, और यह तो बिलकुल भी नहीं जानते थे कि समस्त सृष्टि के प्रभु का सम्मान कैसे करें।आदम के वंशज नहीं जानते थे कि उन्हें किन नियमों और व्यवस्थाओं का पालन अवश्य करना चाहिए, या सृजित को सृष्टा के लिए क्या काम अवश्य करना चाहिए। वे बस यही जानते थे कि पति को अवश्य पसीना बहाकर और परिश्रम करके अपने परिवार का भरण पोषण करना चाहिए, और यह कि पत्नी को अपने पति के प्रति समर्पण अवश्य करना चाहिए और उस मानवजाति को बनाए अवश्य रखना चाहिए जिसे यहोवा ने सृजन किया था। दूसरे शब्दों में, इन लोगों के पास केवल यहोवा की श्वास और उसका जीवन था, परन्तु यह नहीं जानते थे कि परमेश्वर की व्यवस्थाओं का पालन कैसे करें या समस्त सृष्टि के प्रभु को कैसे संतुष्ट करें। वे बहुत ही कम समझते थे। इस प्रकार यद्यपि उनके हृदय में कुछ भी कुटिलता या धूर्तता नहीं थी, और यद्यपि उनके हृदय में कभी-कभार ही ईर्ष्या और असहमति होती थी, फिर भी वे, समस्त सृष्टि के प्रभु, यहोवा को जानते अथवा समझते नहीं थे। मनुष्य के ये वंशज केवल जो कुछ यहोवा ने बनाया था उसे खाना जानते थे, जो कुछ यहोवा ने बनाया था उसका आनन्द लेना जानते थे, किन्तु वे यहोवा का आदर करना नहीं जानते थे; वे नहीं जानते थे कि उन्हें घुटने टेककर उसकी आराधना करनी चाहिए। वे उसकी रचना कैसे कहे जा सकते थे? और इसलिए, क्या ये वचन "यहोवा समस्त सृष्टि का प्रभु है" और "उसने स्वयं की अभिव्यक्ति के रूप में, अपने को महिमामंडित करने और अपना स्वयं का प्रतिनिधित्व करने के लिए मनुष्य का सृजन किया था" व्यर्थ में नहीं कहे गए थे? जो लोग यहोवा का आदर नहीं करते हैं वे उसकी महिमा के गवाह कैसे बन सकते हैं? वे कैसे उसकी महिमा की अभिव्यक्तियाँ हो सकते हैं? क्या तब यहोवा के ये वचन "मैंने मनुष्य को अपनी छवि में बनाया" दुष्टात्मा—शैतान के हाथ में हथियार नहीं बन जाते? क्या तब ये वचन यहोवा के द्वारा मनुष्य के सृजन के लिए अपमान का एक चिह्न नहीं बन जाते? कार्य के उस चरण को पूरा करने के लिए, मनुष्य को बनाने के बाद यहोवा ने आदम से लेकर नूह तक उन्हें निर्देश या मार्गदर्शन नहीं दिया। ऐसा तब तक नहीं हुआ जब तक कि जल प्रलय नहीं आया था कि उसने औपचारिक तौर पर इस्राएलियों का मार्गदर्शन करना आरम्भ किया, जो आदम और नूह के वंशज थे। इस्राएल में उसके कार्य और वचनों ने उस सर्वत्र देश के सभी लोगों के जीवनों का मार्गदर्शन किया, यह दिखाते हुए कि यहोवा न केवल मनुष्य में अपना श्वास फूँकने में सक्षम है, ताकि मनुष्य के पास परमेश्वर का जीवन हो, और उसे मिट्टी से जीवित किया गया था और वह परमेश्वर की एक रचना बनाया गया था, बल्कि मानवजाति पर शासन करने के लिए अपने राजदण्ड का उपयोग करते हुए मानवजाति को आग की ज्वाला से भस्म भी कर सकता, और मानवजाति को शाप दे सकता है। इसलिए भी, क्या उन्होंने देखा था कि यहोवा पृथ्वी पर मनुष्य के जीवन को मार्गदर्शन दे सकता था, और उनके बीच दिन में और रात में बात कर सकता था और कार्य कर सकता था। उसने यह कार्य सिर्फ इसलिए किया था ताकि उसके जीवधारी जान सकें कि मनुष्य धूल से आया है जिसे परमेश्वर द्वारा उठाया था, और यह कि मनुष्य उसके द्वारा बनाया गया था। इसके अलावा, उसने इस्राएल में वह कार्य इसलिए आरम्भ किया था ताकि दूसरे लोग और राष्ट्र (जो वास्तव में इस्राएल से पृथक नहीं थे, किन्तु, इस्राएलियों से अलग हो गए थे, फिर भी वे आदम और हव्वा की सन्तान ही थे) इस्राएल से यहोवा के सुसमाचार को प्राप्त कर सकें, ताकि विश्व में सभी जीवधारी उसका आदर करें और उसे महान होना ठहराएँ। यदि यहोवा ने अपना कार्य इस्राएल में आरम्भ नहीं किया होता, बल्कि उसके बजाए, मनुष्यों को बनाने के बाद, उन्हें पृथ्वी पर निश्चिन्त जीवन जीने दिया होता, तो मनुष्य की शारीरिक प्रकृति के कारण (प्रकृति का अर्थ है कि मनुष्य उन चीज़ों को कभी नहीं जान सकता है जिन्हें वह देख नहीं सकता है, अर्थात्, कि वह नहीं जानता है कि यहोवा ने मानवजाति को बनाया है, और इस बात को तो छोड़ ही दीजिए कि उसने ऐसा क्यों किया है), वह कभी नहीं जान पाता कि यहोवा ने मानवजाति को बनाया है और वह सभी चीज़ों का प्रभु है। यदि यहोवा ने अपने आनन्द के रूप में मनुष्य को बनाया होता, तो एक अवधि तक मनुष्यों के बीच अगुवाई करने की अपेक्षा वह अपने हाथों की धूल झाड़ कर चला गया होता, तब सारी मानवता वापस शून्यता की ओर चली गयी होती; यहाँ तक कि पूरी मानवता सहित, उसके द्वारा सृजन किए गए स्वर्ग और पृथ्वी और सभी चीज़ें वापस शून्यता की ओर चली गयी होती और शैतान द्वारा कुचल दी गई होती। और इसलिए यहोवा की यह इच्छा कि "उसके पास पृथ्वी पर खड़े रहने के लिए एक जगह, और उसकी सृष्टि के बीच एक पवित्र स्थान होना चाहिए" टूटकर बिखर गई होती। अतः इसके बजाए, परमेश्वर के द्वारा मानवजाति को बनाने के बाद, उसने उसके जीवन में उसका मार्गदर्शन किया, और उससे बात की, सब कुछ इसलिए किया ताकि अपनी इच्छा को पूरा कर सके, और अपनी योजना को प्राप्त कर सके। परमेश्वर का कार्य इस्राएल में केवल उस योजना को क्रियान्वित करने के अभिप्राय से किया गया था जिसे उसने सभी चीज़ों की रचना करने से पहले निर्धारित किया था, और इसलिए सबसे पहले इस्राएलियों के मध्य उसका कार्य करना और उसका सभी चीज़ों का सृजन करना एक दूसरे से अलग नहीं थे, बल्कि मानवजाति के सृजन के उसके कार्य के अर्थ को और भी अधिक गहरा करते हुए, दोनों उसके प्रबन्धन, उसके कार्य और उसकी महिमा के कारण थे। उसने नूह के बाद दो हज़ार सालों तक पृथ्वी पर मानवजाति के जीवन का मार्गदर्शन किया, जिस दौरान उसने उन्हें सिखाया कि सभी चीज़ों के प्रभु यहोवा का किस प्रकार आदर करें, उसने उन्हें सिखाया कि किस प्रकार अपना व्यवहार रखना है और अपना जीवन बिताना है, और सब से बढ़कर, किस प्रकार यहोवा के गवाह के रूप में कार्य करना है, उसकी आज्ञा का पालन करना है, उसका सम्मान करना है, और दाऊद और उसके याजकों के समान संगीत के साथ उसकी स्तुति करनी है।
दो हज़ार साल पहले जिस दौरान यहोवा ने अपना कार्य किया, मनुष्य कुछ नहीं जानता था, और लगभग सभी स्वच्छंद संभोग और भ्रष्टाचार में गहराई तक घुलमिलकर विकृत हो गए थे जो कि जलप्रलय से पहले की घटना थी; उनके हृदय में यहोवा नहीं था, उसके मार्ग की तो बात ही छोड़ो। उन्होंने उस कार्य को कभी नहीं समझा था जिसे यहोवा करने जा रहा था; उनमें तर्क शक्ति का अभाव था, और ज्ञान तो बिलकुल भी नहीं था, जीवित, साँस लेती मशीनों के समान, वे मनुष्य, परमेश्वर, तथा संसार और उसी प्रकार जीवन से अनभिज्ञ थे। पृथ्वी पर वे साँप के समान बहुत से प्रलोभनों में व्यस्त थे, और बहुत सी ऐसी बातें कहते थे जो यहोवा का अपमान करती थी, लेकिन क्योंकि वे अनभिज्ञ थे इसलिए यहोवा ने उन्हें ताड़ित या अनुशासित नहीं किया था। जलप्रलय के बाद, जब नूह 601 वर्ष का था, तो यहोवा ने विधिवत् रूप से उसके सामने प्रकट हो कर उसका और उसके परिवार का मार्गदर्शन किया, और उसकी, और उन पक्षियों और जलप्रलय में जिन्दा बच गए जानवरों की, और वंशजों की, व्यवस्था के युग के अंत तक, कुल मिलाकर 2,500 सालों तक, अगुवाई की। उसने 2,000 सालों तक विधिवत रूप से इस्राएल में कार्य किया था, और वह अवधि जब उसने इस्राएल और उसके बाहर कार्य किया था वह 500 वर्षों की थी, जो साथ मिलकर 2,500 साल होते हैं।
इस अवधि के दौरान उसने इस्राएलियों को निर्देश दिया कि यहोवा की सेवा करें, उन्हें मन्दिर का निर्माण करना और याजकों के लबादे पहनने चाहिए, और उषाकाल में नंगे पाँव मन्दिर में प्रवेश करना चाहिए, कहीं ऐसा न हो कि उनके जूते मन्दिर को गंदा कर दें, और मन्दिर के ऊपर से उन पर आग गिरा दी जाए और उन्हें जलाकर मार डाला जए। उन्होंने अपने कर्तव्यों को पूरा किया और यहोवा की योजनाओं के प्रति समर्पित हो गए। उन्होंने मन्दिर में यहोवा से प्रार्थना की, और यहोवा द्वारा उन्हें प्रोत्साहित किए जाने के बाद, अर्थात्, यहोवा के बोलने के बाद, उन्होंने लोगों की अगुवाई की और उन्हें सिखाया कि उन्हें यहोवा—उनके परमेश्वर—का आदर करना चाहिए। और यहोवा ने उनसे कहा कि उन्हें एक मन्दिर और एक वेदी बनानी चाहिए, और यहोवा के द्वारा निर्धारित समय पर, अर्थात्, फसह के पर्व पर, उन्हें यहोवा की सेवा हेतु बलिदान के लिए नए जन्मे हुए बछड़ों और मेम्नों को वेदी पर तैयार करना चाहिए, जिस से लोगों को नियन्त्रण में रखा जा सके और उनके हृदयों में यहोवा के लिए आदर उत्पन्न किया जा सके। उन्होंने इस व्यवस्था का पालन किया है या नहीं यह यहोवा के प्रति उनकी वफादारी की माप होगा। यहोवा ने उनके लिए सब्त का दिन भी निर्धारित किया, उसकी सृष्टि की रचना का सातवाँ दिन। वह दिन जिसके बाद उसने पहला दिन बनाया, उनके लिए यहोवा की स्तुति करने, उसके लिए भेंट चढ़ाने, और उसके लिए संगीत की रचना करने का दिन था। इस दिन, यहोवा ने सभी याजकों को बुलाकर इकट्ठा किया और लोगों के खाने के लिए वेदी के ऊपर की बलियों को बाँट दिया ताकि वे उस बलियों का आनन्द उठा सकें जो यहोवा को चढ़ायी गई थी। और यहोवा ने कहा कि वे धन्य हैं और वे उसके साथ एक हिस्सा बने, और यह कि वे उसके चुने हुए लोग हैं (जो कि इस्राएलियों के साथ यहोवा की वाचा थी)। यही कारण है, कि आज के दिन तक, इस्राएल के लोग अभी भी कहते हैं कि यहोवा ही उनका एकमात्र परमेश्वर है, और अन्य लोगों का परमेश्वर नहीं है।
व्यवस्था के युग के दौरान, यहोवा ने मूसा के लिए अनेक आज्ञाएँ निर्धारित की कि वह उन्हें उन इस्राएलियों को सौंप दे जिन्होंने मिस्र से बाहर उसका अनुसरण किया था। यहोवा ने वे आज्ञाएँ इस्राएलियों को दे दी, जिनका मिस्र के लोगों से कोई संबंध नहीं था, और इनका अभिप्राय था इस्राएलियों को नियन्त्रण में रखना, और उनसे यही उसकी अपेक्षाएँ थी। किसी व्यक्ति ने सब्त का पालन किया है या नहीं, कोई व्यक्ति अपने माता पिता का आदर करता है या नहीं, कोई व्यक्ति मूर्तियों की आराधना करता है या नहीं, इत्यादि, ये ही वे सिद्धांत थे जिन से किसी व्यक्ति का न्याय किया जाता था कि वह पापी है या धर्मी। किसी व्यक्ति पर यहोवा की आग से प्रहार किया गया है, या उसे पत्थऱ मार कर मार डाला गया, या उसने यहोवा का आशीष प्राप्त किया है या नहीं, इसका निर्धारण इस बात से किया जाता था कि उस व्यक्ति ने इन आज्ञाओं का पालन किया था या नहीं। जो सब्त का पालन नहीं करते थे उन्हें पत्थर मार कर मार डाला जाता था। जो याजक सब्त का पालन नहीं करते थे उन्हें यहोवा की आग से मार डाला जाता था। जो अपने माता पिता का आदर नहीं करते थे उन्हें पत्थर मार कर मार डाला जाता था। यह सब कुछ यहोवा द्वारा अनुशंसा किया गया था। यहोवा ने अपनी आज्ञाओं और व्यवस्थाओं को स्थापित किया था ताकि जब वह उनके जीवन की अगुवाई करे, तब लोग उसके वचन को सुनें एवं उसका पालन करें और उसके विरूद्ध विद्रोह न करें। उसने नई जन्मी हुई मानवजाति को नियन्त्रित करने के लिए, और अपने आने वाले कार्य की नींव डालने के लिए इन व्यवस्थाओं का उपयोग किया था। और इसलिए, उस कार्य के कारण जो यहोवा ने किया, पहले युग को व्यवस्था का युग कहा गया था। यद्यपि यहोवा ने बहुत सी बातें कीं और बहुत सा काम किया, किंतु उसने इन अज्ञानी लोगों को यह सिखाते हुए, कि इंसान कैसे बनें, जीवन को कैसे व्यतीत करें, और यहोवा के मार्ग को कैसे समझें, केवल सकारात्मक ढंग से उनका मार्गदर्शन किया। क्योंकि उसके द्वारा किए गए कार्य के अधिकांश भाग का अभिप्राय लोगों को उसके मार्ग का पालन करने और उसकी व्यवस्था का अनुसरण करने की अनुमति देना था। यह कार्य उन लोगों पर किया गया था जो कम गहराई तक भ्रष्ट थे; यह स्वभाव के रूपान्तरण या जीवन की प्रगति से सम्बन्धित नहीं था। वह लोगों को सीमित और नियन्त्रित करने के लिए केवल व्यवस्था का उपयोग करने तक चिंतित था। उस समय इस्राएलियों के लिए, यहोवा मात्र मन्दिर का परमेश्वर, स्वर्ग का परमेश्वर था। वह बादल का एक खम्भा, आग का एक खम्भा था। वह सब जो यहोवा उनसे करवाने की अपेक्षा करता था वह था उन आज्ञाओं का पालन करना जिन्हें आज लोग उसकी व्यवस्थाओं और आज्ञाओं—जिसे कोई नियम भी कह सकता है—के रूप में जानते हैं क्योंकि यहोवा के कार्य का अभिप्राय उनको बदलना नहीं था, बल्कि उन्हें बहुत सी वस्तुएँ देना था जो मनुष्य के पास होनी चाहिए, और उन्हें स्वयं अपने मुँह से बताना था, क्योंकि जब मनुष्य की रचना की गई उसके बाद, मनुष्य कुछ नहीं जानता था कि उसके पास क्या होना चाहिए। और इसलिए यहोवा ने उन्हें उन वस्तुओं को दिया जो पृथ्वी पर उनके जीवन के लिए उनके पास होनी चाहिए, जिन लोगों की उसने अगुवाई की थी उसने उन्हें उनके पूर्वजों, आदम और हव्वा से भी श्रेष्ठ बना दिया, क्योंकि जो कुछ यहोवा ने उन्हें दिया था वह उस से बढ़कर था जो उसने आदम और हव्वा को आरंभ में दिया था। इसके बावजूद, यहोवा ने इस्राएल में जो कार्य किया था वह केवल मानवता का मार्गदर्शन करने और मानवता से उनके रचयिता की पहचान कराने के लिए था। उसने उन्हें जीता या उनको बदला नहीं, मात्र उनका मार्गदर्शन किया। व्यवस्था के युग में यहोवा के कार्य का यही सारांश है। इस्राएल की संपूर्ण धरती पर यह उसके कार्य की पृष्ठभूमि, सच्ची कहानी, और सार, और छः हज़ार सालों के उसके कार्य—यहोवा के हाथ से मानवजाति का नियन्त्रण—का आरंभ है। इसमें से उसकी छः-हज़ार-वर्षों की प्रबन्धन योजना का और अधिक कार्य निकलकर आया।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "व्यवस्था के युग में कार्य" से
अनुग्रह के युग में मनुष्य को शैतान द्वारा भ्रष्ट कर दिया गया, और इसलिए मनुष्य को छुटकारा देने के कार्य के लिए अनुग्रह की भरमार, अनन्त सहनशीलता और धीरज, और उससे भी बढ़कर, मानवता के पापों का प्रयाश्चित करने के लिए पर्याप्त बलिदान की आवश्यकता थी। अनुग्रह के युग में लोगों ने जो देखा वह यीशु, मानवता के लिए मेरी पाप बलि मात्र था। और वे केवल इतना ही जानते थे कि केवल परमेश्वर ही दयावान और सहनशील हो सकता है, और उन्होंने केवल यीशु की दया और करूणामय-प्रेम को देखा था। ऐसा इसलिए था क्योंकि वे अनुग्रह के युग में रहते थे। अतः इससे पहले कि उन्हें छुटकारा दिया जा सके, उन्हें उस अनुग्रह का बहुतायत से आनन्द उठाना था जो यीशु ने उन्हें प्रदान किया था; केवल यही उनके लिए लाभदायक था। इस तरह, उनके द्वारा अनुग्रह का आनन्द उठाने के माध्यम से उन्हें उनके पापों को क्षमा किया जा सकता था, और यीशु की सहनशीलता और धीरज का आनन्द उठाने के माध्यम से उनके पास छुटकारा पाने का एक अवसर हो सकता था। केवल यीशु की सहनशीलता और धीरज के माध्यम से ही वे क्षमा को प्राप्त कर करने में सक्षम हो सकते थे और यीशु के द्वारा दी गई अनुग्रह की भरमार का आनन्द उठा सकते थे—ठीक जैसे कि यीशु ने कहा था, "मैं धर्मियों को नहीं परन्तु पापियों को, उनके पापों को क्षमा करने की अनुमति देते हुए, छुटकारा दिलाने आया हूँ।" यदि यीशु न्याय, अभिशाप, और मनुष्य के अपराधों के प्रति असहिष्णुता के स्वभाव के साथ देहधारी होता, तो मनुष्य के पास छुटकारा पाने का अवसर कभी नहीं होता, और वह हमेशा के लिए पापी रह जाता; और इसलिए छः-हज़ार-सालों की प्रबन्धन योजना व्यवस्था के युग से आगे प्रगति नहीं कर पाती। व्यवस्था का युग अगले छः-हज़ार-सालों तक जारी रहता, मनुष्य के पापों की संख्या बहुत बढ़ जाती और पाप बहुत दारुण हो जाते, और मानवता की रचना का कोई अर्थ नहीं रह जाता। मनुष्य केवल व्यवस्था के अधीन होकर यहोवा की सेवा करने के योग्य हो पाता, परन्तु उसके पाप सबसे पहले रचना किए गए मनुष्यों से बढ़कर हो गए होते। जितना ज़्यादा प्रेम यीशु ने मानवजाति को उसके पापों को क्षमा करते हुए और उन्हें पर्याप्त दया और करूणामय-प्रेम देते हुए किया, उतना ही ज़्यादा मानवजाति बचाए जाने में समर्थ हुई, खोई हुई भेड़ कहलायी जिन्हें यीशु ने बड़ी कीमत देकर वापिस खरीदा। शैतान इस काम में गड़बड़ी नहीं डाल सकता था, क्योंकि यीशु ने अपने अनुयायियों के साथ इस तरह से व्यवहार किया था जैसे एक करूणामयी माता अपने नवजात को अपनी बाँहों में लेकर करती है। वह उन पर क्रोधित नहीं हुआ या उनका तिरस्कार नहीं किया, बल्कि सांत्वाना से भरा हुआ था; वह उनके बीच कभी उग्र नहीं हुआ, बल्कि उनके पापों के साथ धैर्य रखा और उनकी मूर्खता और अज्ञानता के प्रति आँखें मूँद ली, उसने ऐसा कहा, "दूसरों को सत्तर गुना सात बार क्षमा करो।" ताकि उसका हृदय दूसरों के हृदयों को सुधार दे, और इस तरह से लोग उसकी सहनशीलता के माध्यम से क्षमा प्राप्त करें।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "छुटकारे के युग में कार्य से सम्बन्धित सत्य" से
क्योंकि वह एक भिन्न युग था, वह प्रायः लोगों को प्रचुर मात्रा में भोजन और पेय पदार्थ प्रदान करता था ताकि वे अपने पेट भर कर खा सकें। उसने अपने सभी अनुयायियों के साथ दयालु व्यवहार किया, बीमारों को चंगा किया, दुष्टात्माओं को निकाला, और मुर्दों को जिलाया। ताकि लोग उस पर विश्वास करें और देख सकें कि जो कुछ भी उसने किया वह सच्चाई और ईमानदारी से किया, उन्हें यह दिखाते हुए कि उसके हाथों से मृतक भी वापस जीवित हो सकते हैं वह एक सड़ती हुई लाश को पुनः जीवित करने के लिए दूर तक गया। इस तरह से उसने उनके बीच खामोशी से सब कुछ सहा और अपने छुटकारे का कार्य किया। इससे पहले कि उसे सलीब पर चढ़ाया जाता, यीशु ने पहले ही मानवता के पापों को अपने ऊपर धारण कर लिया था और मानवजाति के लिए एक पाप बलि बन गया था। अपने क्रूसारोहण से पहले मानवजाति को छुटकारा दिलाने के उद्देश्य से उसने पहले से ही सलीब तक पहुँचने का मार्ग खोल दिया था। आखि़रकार उसे सलीब पर चढ़ा दिया गया, उसने अपने आपको सलीब के वास्ते बलिदान कर दिया, और उसने अपनी सारी दया, करूणामय-प्रेम, और पवित्रता मानवजाति को प्रदान कर दी।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "छुटकारे के युग में कार्य से सम्बन्धित सत्य" से
यीशु द्वारा छुटकारे के बिना, मानवजाति सदा सर्वदा पाप में जीवन बिता रही होती, और पाप की सन्तान और पिशाचों का वंशज बन जाती। यदि ऐसा निरन्तर होता रहता, तो शैतान पृथ्वी पर घर बना लेता, और सारी पृथ्वी उसका निवास स्थान बन जाती। परन्तु छुटकारे के कार्य के लिए मानवजाति के प्रति दया और करूणामय-प्रेम की आवश्यकता थी; केवल इसके माध्यम से ही मानवजाति को क्षमा प्राप्त हो सकती थी और अंत में पूर्ण किए जाने और पूरी तरह से ग्रहण किए जाने योग्य हो सकती थी। कार्य की इस अवस्था के बिना, छः-हज़ार-सालों की प्रबन्धन योजना आगे बढ़ने में सक्षम नहीं हो सकती थी। यदि यीशु को सलीब पर नहीं चढ़ाया गया होता, यदि उसने केवल लोगों को चंगा ही किया होता और उनकी दुष्टात्माओं को ही निकाला होता, तो लोगों को उनके पापों से पूर्णतः क्षमा नहीं किया जा सकता था। वे साढ़े तीन साल जिसमें यीशु ने पृथ्वी पर कार्य किया था उनमें उसके छुटकारे के कार्य का केवल आधा ही कार्य हुआ था; तब सलीब पर चढ़ाए जाने के द्वारा और पापमय देह की समानता बन करके, एक बुराई को सौंपे जाने के द्वारा, उसने क्रूस पर चढ़ाए जाने का कार्य पूरा किया और मानवजाति की नियति को अपने वश में कर लिया। जब उसे शैतान के हाथों में सौंप दिया गया, केवल उसके बाद ही मानवजाति को छुटकारा मिला था। साढ़े तैंतीस सालों तक उसने पृथ्वी पर कष्ट सहा, उसका उपहास किया गया, उस पर कलंक लगाया गया, और उसे परित्यक्त कर दिया गया, उसे इस तरह छोड़ दिया गया कि उसके पास सिर रखने की भी जगह नहीं थी, कोई आराम की जगह नहीं थी; तब उसे क्रूस पर चढ़ा दिया गया, उसका सम्पूर्ण अस्तित्व—निष्कलंक और निर्दोष शरीर—सलीब पर चढ़ा दिया गया, और वह हर प्रकार के कष्ट से गुज़रा। वे जो सत्ता में थे उन्होंने उसका मज़ाक उड़ाया और उसे कोड़ों से मारा, और यहाँ तक कि सैनिकों ने उसके मुँह पर थूका; मगर वह शांत रहा और अंत तक सहता रहा, और मृत्यु क्षण तक बिना किसी शर्त के समर्पण कर दिया, इसके पश्चात उसने पूरी मानवता को छुटकारा दिलाया और फलस्वरूप उसे आराम करने की अनुमति दी गई।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "छुटकारे के युग में कार्य से सम्बन्धित सत्य" से
अनुग्रह के युग के कार्य में, यीशु परमेश्वर था जिसने मनुष्य को बचाया। उसका स्वरूप अनुग्रह, प्रेम, करुणा, सहनशीलता, धैर्य, विनम्रता, देखभाल और सहिष्णुता, और उसने जो इतना अधिक कार्य किया वह मनुष्य का छुटकारा था। और जहाँ तक उसका स्वभाव है, वह करुणा और प्रेम का था, और क्योंकि वह करुणामय और प्रेममय था, इसलिए उसे मनुष्य के लिए सलीब पर ठोंक दिया जाना था, ताकि यह दिखाया जाए कि परमेश्वर मनुष्य से उसी प्रकार प्रेम करता था जैसे वह स्वयं से करता था, इस हद तक कि उसने स्वयं को अपनी सम्पूर्णता में बलिदान कर दिया। शैतान ने कहा, "चूँकि तुम मनुष्य से प्यार करते हो, इसलिए तुम्हें उसे अत्यंत चरम तक प्यार अवश्य करना चाहिए: मनुष्य को सलीब से, पाप से मुक्त करने के लिए, तुम्हें अवश्य सलीब पर ठोंका जाना चाहिए, और तुम सभी मानव जाति के बदले में स्वयं को अर्पित करोगे।" शैतान ने निम्नलिखित शर्त बनायी: "चूँकि तुम एक प्रेममय और करुणामय परमेश्वर हो, इसलिए तुम्हें मनुष्य को अत्यंत चरम तक प्यार अवश्य करना चाहिए: तुम्हें अवश्य स्वयं को सलीब पर अर्पित करना चाहिए।" यीशु ने कहा, "अगर यह मानवजाति के लिए है, तो मैं अपना सब कुछ अर्पित करने को तैयार हूँ।" इसके बाद, वह बिना झिझक के सलीब पर चढ़ गया और समस्त मानव जाति को छुटकारा दिलाया। अनुग्रह के युग के दौरान, परमेश्वर का नाम यीशु था, जिसका अर्थ है कि परमेश्वर ऐसा परमेश्वर था जिसने मनुष्य को बचाया, और यह कि वह एक करुणामय और प्रेममय परमेश्वर था। परमेश्वर मनुष्य के साथ था। उसका प्यार, उसकी करुणा, और उसका उद्धार हर एक व्यक्ति के साथ था। मनुष्य केवल तभी शांति और आनन्द प्राप्त कर सकता था, उसका आशीष प्राप्त कर सकता था, उसका विशाल और विपुल अनुग्रह प्राप्त कर सकता था, और उसके द्वारा उद्धार प्राप्त कर लेता, यदि मनुष्य यीशु के नाम को स्वीकार कर लेता और उसकी उपस्थिति को स्वीकार कर लेता। यीशु को सलीब पर चढ़ाने के माध्यम से, उसका अनुसरण करने वाले सभी लोगों को उद्धार प्राप्त हुआ और उनके पापों को क्षमा कर दिया गया। अनुग्रह के युग दौरान, परमेश्वर का नाम यीशु था।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के कार्य का दर्शन (3)" से
मनुष्य के लिए, परमेश्वर के सलीब पर चढ़ने ने परमेश्वर के देहधारण के कार्य को संपन्न किया, समस्त मानव जाति को छुटकारा दिलाया, और परमेश्वर को अधोलोक की चाबी ज़ब्त करने की अनुमति दी। हर कोई सोचता है कि परमेश्वर का कार्य पूरी तरह से निष्पादित हो चुका है। वास्तविकता में, परमेश्वर के लिए, उनके कार्य का केवल एक छोटा सा हिस्सा ही निष्पादित हुआ है। उसने केवल मानव जाति को छुटकारा दिलाया है; उसने मानवजाति को जीता नहीं है, मनुष्य में शैतान की कुटिलता को बदलने की बात को तो छोड़ो। यही कारण है कि परमेश्वर कहता है, "यद्यपि मेरी देहधारी देह मृत्यु की पीड़ा से गुज़री है, किन्तु वह मेरे देहधारण का पूर्ण लक्ष्य नहीं था। यीशु मेरा प्यारा पुत्र है और उसे मेरे लिए सलीब पर चढ़ाया गया था, किन्तु उसने मेरे कार्य का पूरी तरह से समापन नहीं किया। उसने केवल इसका एक अंश किया।" इस प्रकार परमेश्वर ने देहधारण के कार्य को जारी रखने के लिए योजनाओं के दूसरे चक्र की शुरुआत की। परमेश्वर का अंतिम अभिप्राय शैतान के हाथों से बचाए गए हर एक को पूर्ण बनाना और प्राप्त करना है,
"वचन देह में प्रकट होता है" से "कार्य और प्रवेश (6)" से
अंत के दिनों का कार्य वचनों को बोलना है। वचनों के माध्यम से मनुष्य में बड़े परिवर्तन किए जा सकते हैं। इन वचनों को स्वीकार करने पर इन लोगों में हुए परिवर्तन उन परिवर्तनों की अपेक्षा बहुत अधिक बड़े हैं जो चिन्हों और अद्भुत कामों को स्वीकार करने पर अनुग्रह के युग में लोगों पर हुए थे। क्योंकि, अनुग्रह के युग में, हाथ रखने और प्रार्थना करने के साथ ही दुष्टात्माएँ मनुष्य से निकल जाती थी, परन्तु मनुष्य के भीतर का भ्रष्ट स्वभाव तब भी बना रहता था। मनुष्य को उसकी बीमारी से चंगा किया गया था और उसके पापों को क्षमा किया गया था, परन्तु बस वह कार्य, कि किस प्रकार मनुष्य के भीतर से उन शैतानी स्वभावों को निकला जा सकता है, उसमें नहीं किया गया था। मनुष्य को केवल उसके विश्वास के कारण ही बचाया गया था और उसके पापों को क्षमा किया गया था, परन्तु उसका पापी स्वभाव उसमें से निकाला नहीं गया था और वह तब भी उसके अंदर बना रहा था। मनुष्य के पापों को देहधारी परमेश्वर के द्वारा क्षमा किया गया था, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि मनुष्य के भीतर कोई पाप नहीं है। पाप बलि के माध्यम से मनुष्य के पापों को क्षमा किया जा सकता है, परन्तु मनुष्य इस मसले को हल करने में असमर्थ रहा है कि वह कैसे आगे और पाप नहीं कर सकता है और कैसे उसके पापी स्वभाव को पूरी तरह से दूर किया जा सकता है और उसे रूपान्तरित किया जा सकता है। परमेश्वर के सलीब पर चढ़ने के कार्य की वजह से मनुष्य के पापों को क्षमा किया गया था, परन्तु मनुष्य पुराने, भ्रष्ट शैतानी स्वभाव में जीवन बिताता रहा। वैसे तो, मनुष्य को भ्रष्ट शैतानी स्वभाव से अवश्य पूरी तरह से बचाया जाना चाहिए ताकि मनुष्य का पापी स्वभाव पूरी तरह से दूर किया जाए और फिर कभी विकसित न हो, इस प्रकार मनुष्य के स्वभाव को बदले जाने की अनुमति दी जाए। इसके लिए मनुष्य से अपेक्षा की जाती है कि वह जीवन में उन्नति के पथ को, जीवन के मार्ग को, और अपने स्वभाव को परिवर्तित करने के मार्ग को समझे। साथ ही इसके लिए मनुष्य को इस मार्ग के अनुरूप कार्य करने की आवश्यकता है ताकि मनुष्य के स्वभाव को धीरे-धीरे बदला जा सके और वह प्रकाश की चमक में जीवन जी सके, और यह कि वह परमेश्वर की इच्छा के अनुसार सभी चीज़ों को कर सके, और भ्रष्ट शैतानी स्वभाव को दूर कर सके, और शैतान के अंधकार के प्रभाव को तोड़कर आज़ाद हो सके, उसके परिणामस्वरूप पाप से पूरी तरह से ऊपर उठ सके। केवल तभी मनुष्य पूर्ण उद्धार प्राप्त करेगा। जब यीशु अपना काम कर रहा था, तो उसके बारे में मनुष्य का ज्ञान तब भी अज्ञात और अस्पष्ट था। मनुष्य ने हमेशा यह विश्वास किया कि वह दाऊद का पुत्र है और उसके एक महान भविष्यद्वक्ता और उदार प्रभु होने की घोषणा की जिसने मनुष्य को पापों से छुटकारा दिया था। विश्वास के आधार पर मात्र उसके वस्त्र के छोर को छू कर ही कुछ लोग चंगे हो गए थे; अंधे देख सकते थे और यहाँ तक कि मृतक को जिलाया भी जा सकता था। हालाँकि, मनुष्य अपने भीतर गहराई से जड़ जमाए हुए शैतानी भ्रष्ट स्वभाव को नहीं समझ सका और न ही मनुष्य यह जानता था कि उसे कैसे दूर किया जाए। मनुष्य ने बहुतायत से अनुग्रह प्राप्त किया, जैसे देह की शांति और खुशी, एक व्यक्ति के विश्वास करने पर पूरे परिवार की आशीष, और बीमारियों से चंगाई के इत्यादि। शेष मनुष्य भले कर्म और उनका ईश्वरीय प्रकटन था; यदि मनुष्य इस तरह के आधार पर जीवन जी सकता था, तो उसे एक अच्छा विश्वासी माना जाता था। केवल ऐसे विश्वासी ही मृत्यु के बाद स्वर्ग में प्रवेश कर सकते थे, जिसका अर्थ है कि उन्हें बचा लिया गया था। परन्तु, अपने जीवन काल में, उन्होंने जीवन के मार्ग को बिलकुल भी नहीं समझा था। उन्होंने बस पाप किए थे, फिर परिवर्तित स्वभाव की ओर बिना किसी मार्ग वाले निरंतर चक्र में पाप-स्वीकारोक्ति की थी; अनुग्रह के युग में मनुष्य की दशा ऐसी ही थी। क्या मनुष्य ने पूर्ण उद्धार पा लिया था? नहीं! इसलिए, उस चरण के पूरा हो जाने के पश्चात्, अभी भी न्याय और ताड़ना का काम है। यह चरण वचन के माध्यम से मनुष्य को शुद्ध बनाता है ताकि मनुष्य को अनुसरण करने का एक मार्ग प्रदान किया जाए। यह चरण फलप्रद या अर्थपूर्ण नहीं होगा यदि यह दुष्टात्माओं को निकालना जारी रखता है, क्योंकि मनुष्य के पापी स्वभाव को दूर नहीं जाएगा और मनुष्य केवल पापों की क्षमा पर आकर रुक जाएगा। पापबलि के माध्यम से, मनुष्य के पापों को क्षमा किया गया है, क्योंकि सलीब पर चढ़ने का कार्य पहले से ही पूरा हो चुका है और परमेश्वर शैतान को जीत लिया है। परन्तु मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव अभी भी उनके भीतर बना हुआ है और मनुष्य अभी भी पाप कर सकता है और परमेश्वर का प्रतिरोध कर सकता है; परमेश्वर ने मानवजाति को प्राप्त नहीं किया है। इसीलिए कार्य के इस चरण में परमेश्वर मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव को प्रकट करने के लिए वचन का उपयोग करता है और मनुष्य से सही मार्ग के अनुसार अभ्यास करने के लिए कहता है। यह चरण पिछले चरण की अपेक्षा अधिक अर्थपूर्ण और साथ ही अधिक लाभदायक भी है, क्योंकि अब वचन ही है जो सीधे तौर पर मनुष्य के जीवन की आपूर्ति करता है और मनुष्य के स्वभाव को पूरी तरह से नया बनाए जाने में सक्षम बनाता है; यह कार्य का ऐसा चरण है जो अधिक विस्तृत है। इसलिए, अंत के दिनों में देहधारण ने परमेश्वर के देहधारण के महत्व को पूरा किया है और मनुष्य के उद्धार के लिए परमेश्वर की प्रबंधन योजना का पूर्णतः समापन किया है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "देहधारण का रहस्य (4)" से
राज्य के युग में, परमेश्वर नए युग की शुरूआत करने, अपने कार्य के साधन बदलने, और संपूर्ण युग में काम करने के लिये अपने वचन का उपयोग करता है। वचन के युग में यही वह सिद्धांत है, जिसके द्वारा परमेश्वर कार्य करता है। वह देहधारी हुआ ताकि विभिन्न दृष्टिकोणों से बातचीत कर सके, मनुष्य वास्तव में परमेश्वर को देख सके, जो देह में प्रकट होने वाला वचन है, और उसकी बुद्धि और आश्चर्य को जान सके। उसने यह कार्य इसलिए किये ताकि वह मनुष्यों को जीतने, उन्हें पूर्ण बनाने और ख़त्म करने के लक्ष्यों को बेहतर ढंग से हासिल कर सके। वचन के युग में वचन को उपयोग करने का यही वास्तविक अर्थ है। वचन के द्वारा परमेश्वर के कार्यों को, परमेश्वर के स्वभाव को, मनुष्य के मूल तत्व और इस राज्य में प्रवेश करने के लिए मनुष्य को क्या करना चाहिए, यह जाना जा सकता है। वचन के युग में परमेश्वर जिन सभी कार्यों को करना चाहता है, वे वचन के द्वारा संपन्न होते हैं। वचन के द्वारा ही मनुष्य की असलियत का पता चलता है, उसे नष्ट किया जाता है, और परखा जाता है। मनुष्य ने वचन देखा है, सुना है, और वचन के अस्तित्व को जाना है। जिसके परिणाम स्वरूप वह परमेश्वर के अस्तित्व पर विश्वास करता है, मनुष्य परमेश्वर के सर्वशक्तिमान होने और उसकी बुद्धि पर, साथ ही साथ मनुष्यों के लिये परमेश्वर के हृदय के प्रेम और मनुष्यों का उद्धार करने की उसकी अभिलाषा पर विश्वास करता है।…राज्य के युग के शुरू से अंत तक, परमेश्वर अपना काम करने और अपने कामों का परिणाम प्राप्त करने के लिये वचन का उपयोग करता है। वह अद्भुत काम या चमत्कार नहीं करता, वह अपने कार्य को केवल वचन के द्वारा संपन्न करता है। वचन के कारण मनुष्य पोषण और आपूर्ति पाता है। वचन के कारण मनुष्य ज्ञान और वास्तविक अनुभव प्राप्त करता है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "राज्य का युग वचन का युग है" से
इस युग के दौरान परमेश्वर द्वारा किया गया कार्य मुख्य रूप से मनुष्य के जीवन के लिए वचनों का प्रावधान करना, मनुष्य की प्रकृति के सार और भ्रष्ट स्वभाव को प्रकट करना था, धार्मिक अवधारणाओं, सामन्ती सोच, पुरानी सोच, साथ ही मनुष्य के ज्ञान और संस्कृति को समाप्त करना था। यह सब कुछ परमेश्वर के वचनों के माध्यम से अवश्य सामने लाया जाना और साफ किया जाना चाहिए। अंत के दिनों में, मनुष्य को पूर्ण करने के लिए परमेश्वर वचनों का उपयोग करता है, न कि चिह्नों और चमत्कारों का। वह मनुष्य को उजागर करने, मनुष्य का न्याय करने, मनुष्य को ताड़ित करने और मनुष्य को पूर्ण बनाने के लिए वचनों का उपयोग करता है, ताकि परमेश्वर के वचनों में, मनुष्य परमेश्वर की बुद्धि और सुन्दरता को देख ले, और परमेश्वर के स्वभाव को समझ जाए, ताकि परमेश्वर के वचनों के माध्यम से, मनुष्य परमेश्वर के कार्यों को निहार ले।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "आज परमेश्वर के कार्य को जानना" से
युग का समापन करने के अपने अंतिम कार्य में, परमेश्वर का ताड़ना और न्याय का एक स्वभाव है,जो वह सब कुछ प्रकट करता है जो अधर्मी है, सार्वजनिक रूप से सभी लोगों का न्याय करता है, और उन लोगों को पूर्ण करता है, जो वास्तव में उससे प्यार करते हैं। केवल इस तरह का एक स्वभाव ही युग का समापन कर सकता है। अंत के दिन पहलेही आ चुके हैं। सभी चीजों को उनके प्रकार के अनुसार वर्गीकृत किया जाएगा, और उनकी प्रकृति के आधार पर विभिन्न श्रेणियों में विभाजित किया जाएगा। यही वह समय है जब परमेश्वर लोगों के परिणाम और उनकी मंज़िल को प्रकट करता है। यदि लोग ताड़ना और न्याय से नहीं गुज़रते हैं,तो उनकी अवज्ञा और अधार्मिकता को प्रकट करने का कोई तरीका नहीं होगा। केवल ताड़ना और न्याय के माध्यम से ही सभी चीजों का अंत प्रकट हो सकता है। मनुष्य केवल तभी अपने वास्तविक रंगों को दिखाता है जब उसे ताड़ना दी जाती है और उसका न्याय किया जाता है। बुरा बुरे की ओर लौट जाएगा, अच्छा अच्छे की ओर लौट जाएगा, और लोगों को उनके प्रकार के अनुसार वर्गीकृत किया जाएगा। ताड़ना और न्याय के माध्यम से, सभी चीजों का अंत प्रकट होगा, ताकि बुराई को दंडित किया जाएग और अच्छे को पुरस्कृत किया जाएगा, और सभी लोग परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन नागरिक बन जाएँगे। सभी कार्य धर्मी ताड़ना और न्याय के माध्यम से अवश्य प्राप्त किया जाना चाहिए। क्योंकि मनुष्य की भ्रष्टता अपने चरम पर पहुँच गई है और उसकी अवज्ञा अत्यंत गंभीर रही है, केवल परमेश्वर का धर्मी स्वभाव ही, जो मुख्यत: ताड़ना और न्याय का है और जो अंत के दिनों दिनों में प्रकट होता है, मनुष्य को रूपान्तरित और पूरा कर सकता है। केवल यह स्वभाव ही बुराई को उजागर कर सकता है और इस तरह सभी अधर्मियों को गंभीर रूप से दण्डित कर सकता है। इसलिए, इस तरह का एक स्वभाव युग के महत्व से सम्पन्न होता है, और उसके स्वभाव का प्रकटन और प्रदर्शन प्रत्येक नए युग के कार्य के वास्ते है। परमेश्वर अपने स्वभाव को मनमाने ढंग से और महत्व के बिना प्रकट नहीं करता है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के कार्य का दर्शन (4)" सेऔर पढ़ें:परमेश्वर का वचन यहाँ है - जीवन और आध्यात्मिक आपूर्ति

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