30.6.19

3. देहधारी परमेश्वर के कार्य और पवित्रात्मा के कार्य के बीच में क्या अंतर है?

अध्याय 5 तुम्हें परमेश्वर के देहधारण के बारे में सच्चाईयों को अवश्य जानना चाहिए

3. देहधारी परमेश्वर के कार्य और पवित्रात्मा के कार्य के बीच में क्या अंतर है?
परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:
यद्यपि देह में किए गए परमेश्वर के कार्य में अनेक अकल्पनीय मुश्किलें शामिल होती हैं, फिर भी वे प्रभाव जिन्हें वह अंततः हासिल करता है वे उन कार्यों से कहीं बढ़कर होते हैं जिन्हें आत्मा के द्वारा सीधे तौर पर किया जाता है। देह के कार्य में काफी कठिनाईयां साथ में जुड़ी होती हैं, और देह आत्मा के समान वैसी ही बड़ी पहचान को धारण नहीं कर सकता है, और आत्मा के समान उन्हीं अलौकिक कार्यों को क्रियान्वित नहीं कर सकता है, और वह आत्मा के समान उसी अधिकार को तो बिलकुल भी धारण नहीं कर सकता है। फिर भी इस साधारण देह के द्वारा किए गए कार्य का मूल-तत्व आत्मा के द्वारा सीधे तौर पर किए गए कार्य से कहीं अधिक श्रेष्ठ है, और यह देह स्वयं ही मनुष्य की समस्त आवश्यकताओं का उत्तर है।क्योंकि उनके लिए जिन्हें बचाया जाना है, आत्मा की उपयोगिता का मूल्य देह की अपेक्षा कहीं अधिक निम्न है: आत्मा का कार्य समूचे विश्व, सारे पहाड़ों, नदियों, झीलों एवं महासागरों को आर-पार ढंकने में सक्षम है, फिर भी देह का कार्य और अधिक प्रभावकारी ढंग से प्रत्येक व्यक्ति से सम्बन्ध रखता है जिसके साथ उसका सम्पर्क है। इसके अलावा, मनुष्य के द्वारा परमेश्वर की देह को उसके स्पर्श्गम्य आकार के साथ बेहतर ढंग से समझा जा सकता है और उस पर भरोसा किया जा सकता है, और यह परमेश्वर के विषय में मनुष्य के ज्ञान को आगे और गहरा कर सकता है, और यह मनुष्य पर परमेश्वर के वास्तविक कार्यों का और अधिक गंभीर प्रभाव छोड़ सकता है। आत्मा का कार्य रहस्य से ढका हुआ है, इसकी गहराई को मापना नश्वर प्राणियों के लिए कठिन है, और यहाँ तक कि उनके लिए उन्हें देखना और भी अधिक मुश्किल है, और इस प्रकार वे मात्र खोखली कल्पनाओं पर भरोसा रख सकते हैं। फिर भी, देह का कार्य साधारण है, यह वास्तविकता पर आधारित है, और समृद्ध बुद्धि धारण किए हुए है, और ऐसा तथ्य है जिसे मनुष्य की शारीरिक आँख के द्वारा देखा जा सकता है; मनुष्य परमेश्वर के कार्य की बुद्धिमत्ता का व्यक्तिगत रूप से अनुभव कर सकता है, और उसे अपनी ढेर सारी कल्पना को काम में लगाने की आवश्यकता नहीं है। यह देह में परमेश्वर के कार्य की सटीकता एवं उसका वास्तविक मूल्य है। आत्मा केवल उन कार्यों को कर सकता है जो मनुष्य के लिए अदृश्य हैं और उसके लिए कल्पना करने हेतु कठिन हैं, उदाहरण के लिए आत्मा की प्रबुद्धता, आत्मा द्वारा हृदय स्पर्श करना, और आत्मा का मार्गदर्शन, परन्तु मनुष्य के लिए जिसके पास एक मस्तिष्क है, ये कोई स्पष्ट अर्थ प्रदान नहीं करते हैं। वे केवल हृदय स्पर्शी, या एक विस्तृत अर्थ प्रदान करते हैं, और वचनों से कोई निर्देश नहीं दे सकते हैं। फिर भी, देह में परमेश्वर का कार्य बहुत ही अलग होता है: उसमें वचनों का सटीक मार्गदर्शन होता है, उसमें स्पष्ट इच्छा होती है, और उसमें स्पष्ट अपेक्षित उद्देश्य होते हैं। और इस प्रकार मनुष्य को अंधेरे में यहाँ वहाँ टटोलने, या अपनी कल्पना को काम में लागाने की कोई आवश्यकता नहीं होती है, और अंदाज़ा लगाने की तो बिलकुल भी आवश्यकता नहीं होती है। यह देह में किए गए कार्य की स्पष्टता है, और आत्मा के कार्य से बिलकुल अलग है। आत्मा का कार्य केवल एक सीमित दायरे तक उपयुक्त होता है, और देह के कार्य का स्थान नहीं ले सकता है। देह का कार्य मनुष्य को आत्मा के कार्य की अपेक्षा कहीं अधिक सटीक एवं आवश्यक लक्ष्य और कहीं अधिक वास्तविक, एवं मूल्यवान ज्ञान प्रदान करता है। वह कार्य जो भ्रष्ट मनुष्य के लिए सबसे अधिक मूल्य रखता है वह ऐसा कार्य है जो सटीक वचनों, एवं अनुसरण करने के लिए स्पष्ट लक्ष्यों को प्रदान करता है, और जिसे देखा एवं स्पर्श किया जा सकता है। केवल वास्तविकता से सम्बन्धित कार्य एवं समयानुसार मार्गदर्शन ही मनुष्य की अभिरुचियों के लिए उपयुक्त होते हैं, और केवल वास्तविक कार्य ही मनुष्य को उसके भ्रष्ट एवं दूषित स्वभाव से बचा सकता है। इसे केवल देहधारी परमेश्वर के द्वारा ही हासिल किया जा सकता है; केवल देहधारी परमेश्वर ही मनुष्य को उसके पूर्व के भ्रष्ट एवं दूषित स्वभाव से बचा सकता है। यद्यपि आत्मा परमेश्वर का अंतर्निहित मूल-तत्व है, फिर भी ऐसे कार्य को केवल उसके देह के द्वारा ही किया जा सकता है। यदि आत्मा अकेले ही कार्य करता, तब उसके कार्य का प्रभावशाली होना संभव नहीं होता—यह एक सरल सच्चाई है। यद्यपि अधिकांश लोग इस देह के कारण परमेश्वर के शत्रु बन गए हैं, फिर भी जब वह अपने कार्य को पूरा करता है, तो ऐसे लोग जो उसके विरोधी हैं वे न केवल आगे से उसके शत्रु नहीं रहेंगे, बल्कि इसके विपरीत वे उसके गवाह बन जाएंगे। वे ऐसे गवाह बन जाएंगे जिन्हें उसके द्वारा जीत लिया गया है, ऐसे गवाह जो उसके अनुकूल हैं और उससे अविभज्य हैं। वह मनुष्य को प्रेरित करेगा कि मानव के प्रति देह में किए गए उसके कार्य के महत्व को जाने, और मनुष्य मानव के अस्तित्व के अर्थ के लिए इस देह के महत्व को जानेगा, मानव के जीवन की प्रगति के लिए उसके वास्तविक मूल्य को जानेगा, और, इसके अतिरिक्त, यह जानेगा कि यह देह जीवन का एक जीवन्त सोता बन जाएगा जिससे अलग होने की बात को मानव सहन नहीं कर सकता है। यद्यपि परमेश्वर का देहधारी शरीर परमेश्वर की पहचान एवं पद से मेल खाने से कहीं दूर है, और मनुष्य को ऐसा प्रतीत होता है कि वह उसके वास्तविक रुतबे से असंगत है, फिर भी यह देह, जो परमेश्वर के असली रूप को, या परमेश्वर की सच्ची पहचान को धारण किए हुए नहीं है, वह कार्य कर सकता है जिसे परमेश्वर का आत्मा सीधे तौर पर करने में असमर्थ है। परमेश्वर के देहधारण का असली महत्व एवं मूल्य ऐसा ही है, और यह वही महत्व एवं मूल्य है जिसे सराहने एवं स्वीकार करने में मनुष्य असमर्थ है। यद्यपि समस्त मनुष्य परमेश्वर के आत्मा को ऊँची दृष्टि से देखते हैं और परमेश्वर के देह को नीची दृष्टि से देखते हैं, फिर भी इस बात पर विचार न करते हुए कि वे किस प्रकार सोचते या देखते हैं, देह का वास्तविक महत्व एवं मूल्य आत्मा से कहीं बढ़कर है। निश्चित रूप से, यह केवल भ्रष्ट मनुष्य के सम्बन्ध में है। क्योंकि हर कोई जो सत्य की खोज करता है और परमेश्वर के प्रकट होने की लालसा करता है, आत्मा का कार्य केवल हृदय स्पर्श या प्रकाशन, और अद्भुतता का एहसास प्रदान कर सकता है जो अवर्णनीय एवं अकल्पनीय है, और ऐसा एहसास प्रदान करता है कि यह महान, सर्वोपरि, एवं प्रशंसनीय है, फिर भी सभी के लिए अप्राप्य एवं असाध्य भी है। मनुष्य एवं परमेश्वर का आत्मा एक दूसरे को केवल दूर से ही देख सकते हैं, मानो उनके बीच एक बड़ी दूरी है, और वे कभी भी एक समान नहीं हो सकते हैं, मानो किसी अदृश्य विभाजन के द्वारा अलग किए गए हों। वास्तव में, यह एक दृष्टि भ्रम है जिसे आत्मा के द्वारा मनुष्य को दिया गया है, यह इसलिए है क्योंकि आत्मा एवं मनुष्य दोनों एक ही किस्म के नहीं हैं, और आत्मा एवं मनुष्य इसी संसार में एक साथ अस्तित्व में नहीं रह सकेंगे, और इसलिए क्योंकि आत्मा मनुष्य की किसी भी चीज़ को धारण नहीं करता है। अतः मनुष्य को आत्मा की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि आत्मा सीधे तौर पर वह कार्य नहीं कर सकता है जिसकी मनुष्य को सबसे अधिक आवश्यकता होती है। देह का काम मनुष्य को अनुसरण करने के लिए वास्तविक उद्देश्य देता है, स्पष्ट वचन, और एक एहसास देता है कि परमेश्वर वास्तविक एवं सामान्य है, यह कि वह दीन एवं साधारण है। यद्यपि मनुष्य उसका भय मान सकता है, फिर भी अधिकांश लोगों के लिए उससे सम्बन्ध रखना आसान है: मनुष्य उसके चेहरे को देख सकता है, और उसकी आवाज़ को सुन सकता है, और दूर से उसे देखने की आवश्यकता नहीं है। यह देह महसूस करता है कि वह मनुष्य तक पहुंच सकता है, एवं वह दूर, या अथाह नहीं है, परन्तु दृश्यमान एवं स्पर्शगम्य है, क्योंकि यह देह मनुष्य के समान इसी संसार में है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "भ्रष्ट मानवजाति को देह धारण किए हुए परमेश्वर के उद्धार की अत्यधिक आवश्यकता है" से
परमेश्वर के द्वारा मनुष्य को सीधे तौर पर पवित्रात्मा के साधनों के माध्यम से या आत्मा के रूप में बचाया नहीं जाता है, क्योंकि उसके आत्मा को मनुष्य के द्वारा न तो देखा जा सकता है और न ही स्पर्श किया जा सकता है, और मनुष्य के द्वारा उस तक पहुँचा नहीं जा सकता है। यदि उसने आत्मा के तरीके से सीधे तौर पर मनुष्य को बचाने का प्रयास किया होता, तो मनुष्य उसके उद्धार को प्राप्त करने में असमर्थ होता। और यदि परमेश्वर सृजित मनुष्य का बाहरी रूप धारण नहीं करता, तो वे इस उद्धार को पाने में असमर्थ होते। क्योंकि मनुष्य किसी भी तरीके से उस तक नहीं पहुँच सकता है, उसी प्रकार जैसे कोई भी मनुष्य यहोवा के बादल के पास नहीं जा सकता था। केवल सृष्टि का एक मनुष्य बनने के द्वारा ही, अर्थात्, अपने वचन को देह में रखकर ही वह मनुष्य बनेगा, वह व्यक्तिगत रूप से वचन के कार्य को उन सभी मनुष्यों में कर सकता है जो उसका अनुसरण करते हैं। केवल तभी मनुष्य स्वयं उसके वचन को सुन सकता है, उसके वचन को देख सकता है, और उसके वचन को ग्रहण कर सकता है, तब इसके माध्यम से पूरी तरह से बचाया जा सकता है। यदि परमेश्वर देह नहीं बना होता, तो किसी भी शरीरी मनुष्य ऐसे बड़े उद्धार को प्राप्त नहीं किया होता, और न ही कोई एक भी मनुष्य बचाया गया होता। यदि परमेश्वर का आत्मा ने सीधे तौर पर मनुष्य के बीच काम किया होता, तो मनुष्य को मार दिया गया होता या शैतान के द्वारा पूरी तरह से बंदी बनाकर ले जाया गया होता क्योंकि मनुष्य परमेश्वर के साथ सम्बद्ध होने में असमर्थ है। प्रथम देहधारण यीशु की देह के माध्यम से मनुष्य को पाप से छुटकारा देने के लिए था, अर्थात्, उसने मनुष्य को सलीब से बचाया, परन्तु भ्रष्ट शैतानी स्वभाव तब भी मनुष्य के भीतर रह गया था। दूसरा देहधारण अब और पापबलि के रूप में कार्य करने के लिए नहीं है परन्तु उन्हें पूरी तरह से बचाने के लिए है जिन्हें पाप से छुटकारा दिया गया था। इसे इसलिए किया जाता है ताकि जिन्हें क्षमा किया गया उन्हें उनके पापों से छुटकारा दिया जा सके और पूरी तरह से शुद्ध किया जा सके, और वे स्वभाव में परिवर्तन प्राप्त कर सकें, उसके परिणामस्वरूप वे शैतान के अंधकार के प्रभाव को तोड़कर आज़ाद हो जाएँ और परमेश्वर के सिंहासन के सामने लौट आएँ। केवल इसी तरीके से ही मनुष्य को पूरी तरह से पवित्र किया जा सकता है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "देहधारण का रहस्य (4)" से
यदि परमेश्वर का आत्मा मनुष्यों से सीधे तौर पर बात करता, तो वे सब उस वचन के प्रति समर्पित हो जाते, प्रकाशन के वचनों के बिना नीचे गिर जाते, बिलकुल वैसे ही जैसे पौलुस ज्योति के मध्य भूमि पर गिर गया था जब उसने दमिश्क की यात्रा की थी। यदि परमेश्वर लगातार इसी तरीके से काम करता, तो मनुष्य वचन के द्वारा न्याय के माध्यम से अपने स्वयं के भ्रष्ट स्वभाव को जानने और उद्धार प्राप्त करने में कभी समर्थ नहीं होता। केवल देह बनने के माध्यम से ही वह व्यक्तिगत रूप से अपने वचनों को सभी के कानों तक पहुँचा सकता है ताकि वे सभी जिनके पास कान हैं उसके वचनों को सुन सकें और वचन के द्वारा न्याय के उसके कार्य को प्राप्त कर सकें। उसके वचन के द्वारा प्राप्त किया गया परिणाम सिर्फ ऐसा ही है, पवित्रात्मा के आविर्भाव के बजाए जो मनुष्य को भयभीत करके समर्पण करवाता है। केवल ऐसे ही व्यावहारिक और असाधारण कार्य के माध्यम से ही मनुष्य के पुराने स्वभाव को, जो अनेक वर्षों से भीतर गहराई में छिपा हुआ है, पूरी तरह से प्रकट किया जा सकता है ताकि मनुष्य उसे पहचाने सके और उसे बदलवा सके। यह देहधारी परमेश्वर का व्यावहारिक कार्य है; वह वचन के द्वारा मनुष्य पर न्याय के परिणामों को प्राप्त करने के लिए व्यावहारिक तरीके से बोलता है और न्याय को निष्पादित करता है। यह देहधारी परमेश्वर का अधिकार है और परमेश्वर के देहधारण का महत्व है। इसे देहधारी परमेश्वर के अधिकार को, वचन के कार्य के द्वारा प्राप्त किए गए परिणामों को, और इस बात को प्रकट करने के लिए किया जाता है कि आत्मा देह में आ चुका है; वह वचन के द्वारा मनुष्य के न्याय के माध्यम से अपने अधिकार को प्रदर्शित करता है। यद्यपि उसकी देह एक साधारण और सामान्य मानवता का बाहरी रूप है, फिर भी ये वे परिणाम हैं जिन्हें उसके वचन प्राप्त करते हैं जो मनुष्य को दिखाते हैं कि परमेश्वर अधिकार से परिपूर्ण है, यह कि वह परमेश्वर स्वयं है और यह कि उसके वचन स्वयं परमेश्वर की अभिव्यक्ति हैं। यह सभी मनुष्यों को दिखाता है कि वह परमेश्वर स्वयं है, परमेश्वर स्वयं जो देह बन गया है, और यह कि किसी के भी द्वारा उसका अपमान नहीं किया जा सकता है। कोई भी उसके वचन के द्वारा किए गए न्याय से बढ़कर नहीं हो सकता है, और अंधकार की कोई भी शक्ति उसके अधिकार पर प्रबल नहीं हो सकती। मनुष्य उसके प्रति पूर्णतः समर्पण करता है क्योंकि वही वचन देह बन गया है, उसका अधिकार है, और वचन द्वारा उसका न्याय है। उसके देहधारी देह द्वारा लाया गया कार्य ही वह अधिकार है जिसे वह धारण करता है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "देहधारण का रहस्य (4)" से
क्योंकि वह मनुष्य है जिसका न्याय किया जाता है, मनुष्य जो हाड़-मांस का है और उसे भ्रष्ट किया जा चुका है, और यह शैतान का आत्मा नहीं है जिसका सीधे तौर पर न्याय किया जाता है, न्याय के कार्य को आत्मिक संसार में सम्पन्न नहीं किया जाता है, परन्तु मनुष्यों के बीच किया जाता है। कोई भी मनुष्य की देह की भ्रष्टता का न्याय करने के लिए देह में प्रगट परमेश्वर की अपेक्षा अधिक उपयुक्त, एवं योग्य नहीं है। यदि न्याय सीधे तौर पर परमेश्वर के आत्मा के द्वारा किया गया होता, तो यह सभी के द्वारा स्वेच्छा से स्वीकार्य नहीं होता। इसके अतिरिक्त, ऐसे कार्य को स्वीकार करना मनुष्य के लिए कठिन होगा, क्योंकि आत्मा मनुष्य के साथ आमने-सामने आने में असमर्थ है, और इस कारण से, प्रभाव तत्काल नहीं होंगे, और मनुष्य परमेश्वर के अनुल्लंघनीय स्वभाव को साफ-साफ देखने में बिलकुल भी सक्षम नहीं होगा। यदि देह में प्रगट परमेश्वर मानवजाति की भ्रष्टता का न्याय करे केवल तभी शैतान को पूरी तरह से हाराया जा सकता है। मनुष्य के समान होकर जो सामान्य मानवता को धारण करता है, देह में प्रगट परमेश्वर सीधे तौर पर मनुष्य की अधार्मिकता का न्याय कर सकता है; यह उसकी अंतर्निहित पवित्रता, एवं उसकी असाधारणता का चिन्ह है। केवल परमेश्वर ही योग्य है, एवं उस स्थिति में है कि मनुष्य का न्याय करे, क्योंकि वह सत्य एवं धार्मिकता को धारण किए हुए है, और इस प्रकार वह मनुष्य का न्याय करने में सक्षम है। ऐसे लोग जो सत्य एवं धार्मिकता से रहित हैं वे दूसरों का न्याय करने के लायक नहीं हैं। यदि इस कार्य को परमेश्वर के आत्मा के द्वारा किया जाता, तो एक छोटा सा कीड़ा (लीख) भी शैतान पर विजय नहीं पाता। आत्मा स्वभाव से ही नश्वर प्राणियों कहीं अधिक ऊँचा है, और परमेश्वर का आत्मा स्वभाव से ही पवित्र है, और देह के ऊपर जयवंत है। यदि आत्मा ने इस कार्य को सीधे तौर पर किया होता, तो वह मनुष्य की सारी आनाज्ञाकारिता का न्याय करने में सक्षम नहीं होता, और मनुष्य की सारी अधार्मिकता को प्रगट नहीं कर सकता था। क्योंकि परमेश्वर के विषय में मनुष्य की धारणाओं के माध्यम से न्याय के कार्य को भी सम्पन्न किया जाता है, और मनुष्य के पास कभी भी आत्मा के विषय में कोई धारणाएं नहीं है, और इस प्रकार आत्मा मनुष्य की अधार्मिकता को बेहतर तरीके से प्रगट करने में असमर्थ है, और ऐसी अधार्मिकता को पूरी तरह से उजागर करने में तो बिलकुल भी समर्थ नहीं है। देहधारी परमेश्वर उन सब लोगों का शत्रु है जो उसे नहीं जानते हैं। उसके प्रति मनुष्य की धारणाओं एवं विरोध का न्याय करने के माध्यम से, वह मानवजाति की सारी अनाज्ञाकारिता का खुलासा करता है। देह में उसके कार्य के प्रभाव आत्मा के कार्य की अपेक्षा अधिक प्रगट हैं। और इस प्रकार, समस्त मानवजाति के न्याय को आत्मा के द्वारा सीधे तौर पर सम्पन्न नहीं किया जाता है, बल्कि यह देहधारी परमेश्वर का कार्य है। देह में प्रगट परमेश्वर को मनुष्य के द्वारा देखा एवं छुआ जा सकता है, और देह में प्रगट परमेश्वर पूरी तरह से मनुष्य पर विजय पा सकता है। देहधारी परमेश्वर के साथ अपने रिश्ते में, मनुष्य विरोध से आज्ञाकारिता की ओर, सताव से स्वीकार्यता की ओर, सोच विचार से ज्ञान की ओर, और तिरस्कार से प्रेम की ओर प्रगति करता है। ये देहधारी परमेश्वर के कार्य के प्रभाव हैं। मनुष्य को केवल परमेश्वर के न्याय की स्वीकार्यता के माध्यम से ही बचाया जाता है, मनुष्य केवल परमेश्वर के मुँह के वचनों के माध्यम से ही धीरे धीरे उसे जानने लगता है, परमेश्वर के प्रति उसके विरोध के दौरान उसके द्वारा मनुष्य पर विजय पाया जाता है, और परमेश्वर की ताड़ना की स्वीकार्यता के दौरान वह उससे जीवन की आपूर्ति प्राप्त करता है। यह समस्त कार्य देहधारी परमेश्वर के कार्य हैं, और आत्मा के रूप में उसकी पहचान में परमेश्वर का कार्य नहीं है। देहधारी परमेश्वर के द्वारा किया गया कार्य सर्वश्रेष्ठ कार्य है, और अति गंभीर कार्य है, और परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों का अति महत्वपूर्ण भाग देहधारण के दो चरणों के कार्य हैं।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "भ्रष्ट मानवजाति को देह धारण किए हुए परमेश्वर के उद्धार की अत्यधिक आवश्यकता है" से
यदि यह कार्य आत्मा द्वारा किया जाता—यदि परमेश्वर देहधारी नहीं बना होता, और इसके बजाय आत्मा ने गड़गड़ाहट के माध्यम से सीधे बात की होती ताकि मनुष्य के पास उससे संपर्क करने का कोई रास्ता नहीं होता,तो क्या मनुष्य उसके स्वभाव को जान पाता? यदि केवल पवित्रात्मा ने कार्य किया होता,तो मनुष्य के पास उसके स्वभाव को जानने का कोई तरीका नहीं होता। लोग केवल तभी परमेश्वर के स्वभाव को अपनी आँखों से देख सकते हैं जब वह देह बनता है,जब वचन देह में प्रकट होता है, और वह अपना संपूर्ण स्वभाव देह के माध्यम से व्यक्त करता है। परमेश्वर वास्तव में मनुष्यों के बीच रहता है। वह मूर्त है; मनुष्य वास्तव में उसके स्वभाव और उसके स्वरूप के साथ संलग्न हो सकता है; केवल इसी तरह से मनुष्य वास्तव में उसे जान सकता है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के कार्य का दर्शन (3)" से
देह में किए गए उसके कार्य के विषय में सबसे अच्छी बात यह है कि वह सटीक वचनों एवं उपदेशों को, और मानवजाति के लिए अपनी सटीक इच्छा को उन लोगों के लिए छोड़ सकता है जो उसका अनुसरण करते हैं, ताकि बाद में उसके अनुयायी देह में किए गए उसके समस्त कार्य और समूची मानवजाति के लिए उसकी इच्छा को अत्यधिक सटीकता एवं अत्यंत ठोस रूप में उन लोगों तक पहुंचा सकते हैं जो इस मार्ग को स्वीकार करते हैं। केवल मनुष्य के बीच देह में प्रगट परमेश्वर का कार्य ही सचमुच में परमेश्वर के अस्तित्व और मनुष्य के साथ रहने के तथ्य को पूरा करता है। केवल यह कार्य ही परमेश्वर के मुख को देखने, परमेश्वर के कार्य की गवाही देने, और परमेश्वर के व्यक्तिगत वचन को सुनने हेतु मनुष्य की इच्छा को पूरा करता है। देहधारी परमेश्वर उस युग को अन्त की ओर लाता है जब सिर्फ यहोवा की पीठ ही मानवजाति को दिखाई दी थी, और साथ ही अस्पष्ट परमेश्वर में मानवजाति के विश्वास का भी समापन करता है। विशेष रूप में, अंतिम देहधारी परमेश्वर का कार्य सारी मानवजाति को एक ऐसे युग में लाता है जो और अधिक वास्तविक, और अधिक व्यावहारिक, एवं और अधिक मनोहर है। वह न केवल व्यवस्था एवं सिद्धान्त के युग का अन्त करता है; बल्कि अति महत्वपूर्ण रूप से, वह मानवजाति पर ऐसे परमेश्वर को प्रगट करता है जो वास्तविक एवं साधारण है, जो धर्मी एवं पवित्र है, जो प्रबंधकीय योजना के कार्य को चालू करता है और मानवजाति के रहस्यों एवं मंज़िल को प्रदर्शित करता है, जिसने मानवजाति को सृजा था और प्रबंधकीय कार्य को अन्त की ओर ले जाता है, और जो हज़ारों वर्षों से छिपा हुआ है। वह अस्पष्टता के युग को सम्पूर्ण अन्त की ओर ले जाता है, वह उस युग का अन्त करता है जिसमें समूची मानवजाति परमेश्वर के मुख को खोजने की इच्छा करती थी परन्तु वह ऐसा करने में असमर्थ थी, वह ऐसे युग का अन्त करता है जिसमें समूची मानवजाति शैतान की सेवा करती थी, और समस्त मानवजाति की अगुवाई पूरी तरह से एक नए विशेष काल (युग) में करता है। यह सब परमेश्वर के आत्मा के बजाए देह में प्रगट परमेश्वर के कार्य का परिणाम है। जब परमेश्वर अपनी देह में कार्य करता है, तो ऐसे लोग जो उसका अनुसरण करते हैं वे आगे से उन अस्पष्ट एवं संदिग्ध चीज़ों को खोजते एवं टटोलते नहीं हैं, और अस्पष्ट परमेश्वर की इच्छा का अन्दाज़ा लगाना बन्द कर देते हैं। जब परमेश्वर देह में अपने कार्य को फैलाता है, तो ऐसे लोग जो उसका अनुसरण करते हैं वे उस कार्य को सभी मसीही समुदायों एवं मतों में आगे पहुंचाएंगे जिसे उसने देह में किया है, और वे उसके सभी वचनों को समूची मानवजाति के युगों से कहेंगे। सब कुछ जिसे उन लोगों के द्वारा सुना गया है जिन्होंने उसके सुसमाचार को प्राप्त किया है वे उसके कार्य के तथ्य होंगे, ऐसी चीज़ें होंगीं जिन्हें मनुष्य के द्वारा व्यक्तिगत रूप से देखा एवं सुना गया है, और तथ्य होंगे और झूठी शिक्षा नहीं होगी। ये तथ्य ऐसे प्रमाण हैं जिनके तहत वह उस कार्य को फैलाता है, और वे ऐसे यन्त्र हैं जिन्हें वह उस कार्य को फैलाने में इस्तेमाल करता है। तथ्यों की मौजूदगी के बगैर, उसका सुसमाचार सभी देशों एवं सभी स्थानों तक नहीं फैलेगा; तथ्यों के बिना किन्तु केवल मनुष्यों की कल्पनाओं के साथ, वह समूचे संसार पर विजय पाने के कार्य को करने में कभी सक्षम नहीं होगा। आत्मा मनुष्य के लिए अस्पृश्य है, और मनुष्य के लिए अदृश्य है, और आत्मा का कार्य मनुष्य के लिए परमेश्वर के कार्य के विषय में और कोई प्रमाण एवं तथ्यों को छोड़ने में असमर्थ है। मनुष्य परमेश्वर के सच्चे चेहरे को कभी नहीं देख पाएगा, और वह हमेशा ऐसे अस्पष्ट परमेश्वर में विश्वास करता रहेगा जो अस्तित्व में है ही नहीं। मनुष्य कभी परमेश्वर के मुख को नहीं देख पाएगा, न ही मनुष्य परमेश्वर के द्वारा व्यक्तिगत रूप से कहे गए वचनों को कभी सुन पाएगा। मनुष्य की कल्पनाएं, आखिरकार, खोखली होती हैं, और परमेश्वर के सच्चे चेहरे का स्थान नहीं ले सकती हैं; मनुष्य के द्वारा परमेश्वर के अंतर्निहित स्वभाव, और स्वयं परमेश्वर के कार्य की नकल (रूप धारण) नहीं की जा सकती है। स्वर्ग के अदृश्य परमेश्वर और उसके कार्य को केवल देहधारी परमेश्वर के द्वारा ही पृथ्वी पर लाया जा सकता है जो मनुष्य के बीच में व्यक्तिगत रूप से अपना कार्य करता है। यह सबसे आदर्श तरीका है जिसके अंतर्गत परमेश्वर मनुष्य पर प्रगट होता है, जिसके अंतर्गत मनुष्य परमेश्वर को देखता है और परमेश्वर के असली चेहरे को जानने लगता है, और इसे किसी देह रहित परमेश्वर के द्वारा हासिल नहीं किया जा सकता है। परमेश्वर के द्वारा इस चरण के अपने कार्य को सम्पन्न करने के बाद, उसके कार्य ने पहले से ही सर्वोत्तम प्रभाव को हासिल लिया है, और पूरी तरह सफल रहा है। देह में प्रगट परमेश्वर के व्यक्तिगत कार्य ने पहले से ही परमेश्वर के समूचे प्रबंधन के कार्य का नब्बे प्रतिशत कार्य पूरा कर लिया है। इस देह ने उसके समस्त कार्य को एक बेहतर शुरूआत, और उसके समस्त कार्य के लिए एक सारांश प्रदान किया है, और उसके समस्त कार्य की घोषणा की है, और इस समस्त कार्य के लिए फिर से सम्पूर्ण आपूर्ति की है। इसके पश्चात्, परमेश्वर के कार्य के चौथे चरण को करने के लिए और कोई दूसरा देहधारी परमेश्वर नहीं होगा, और परमेश्वर के तीसरे देहधारण का और कोई चमत्कारीय कार्य नहीं होगा।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "भ्रष्ट मानवजाति को देह धारण किए हुए परमेश्वर के उद्धार की अत्यधिक आवश्यकता है" से
स्रोत:सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया

अनुशंसित:पवित्र आत्मा ने यीशु मसीह के लिए क्यों गवाही दी कि वह परमेश्वर का प्यारा पुत्र है?

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

प्रभु की वापसी का स्वागत करने के लिए एक अति महत्वपूर्ण कदम

<p><span style="font-size:16px;"><span style="color:#000000;"><span style="background-color:#f...

TheSalvationAlmightyGod