अध्याय 5 तुम्हें परमेश्वर के देहधारण के बारे में सच्चाईयों को अवश्य जानना चाहिए
5.देहधारण के महत्व को दो देहधारण पूरा करते हैं।
परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:
देहधारण का महत्व यह है कि वह साधारण, सामान्य मनुष्य परमेश्वर स्वयं के कार्यों को करता है; अर्थात्, कि परमेश्वर अपने दिव्य कार्य को मानवता में करता है और उसके द्वारा शैतान को परास्त करता है। देहधारण का अर्थ है कि परमेश्वर का आत्मा देह बन जाता है, अर्थात्, परमेश्वर देह बन जाता है; जो कार्य वह देह में करता है वह पवित्रात्मा का कार्य होता है, जो देह में प्राप्त होता है, देह द्वारा अभिव्यक्त होता है। परमेश्वर को छोड़कर कोई भी अन्य देहधारी परमेश्वर की सेवकाई को पूर्ण नहीं कर सकता है; अर्थात्, केवल परमेश्वर की देहधारी देह, यह सामान्य मानवता—और कोई अन्य नहीं—दिव्य कार्य को व्यक्त कर सकता है। यदि, उसके पहले आगमन के दौरान, उनतीस वर्ष की उम्र से पहले परमेश्वर में सामान्य मानवता नहीं होती—यदि जैसे ही उसने जन्म लिया था वह अचम्भे कर सकता, यदि जैसे ही उसने बोलना आरम्भ किया वह स्वर्ग की भाषा बोल सकता, यदि जिस क्षण उसने सबसे पहले पृथ्वी पर कदम रखा वह सभी संसारिक मामलों को समझ सकता, हर व्यक्ति के विचारों और इरादों को समझ सकता—तो वह एक सामान्य मनुष्य नहीं कहलाया जा सकता था, और उसकी देह मानवीय देह नहीं कहलायी जा सकती थी।यदि ऐसा मामला मसीहा के साथ होता, तो परमेश्वर के देहधारण का अर्थ और सार दोनों ही समाप्त हो गए होते। यह कि वह सामान्य मानवता से सम्पन्न था इससे सिद्ध होता है कि देह में देहधारी परमेश्वर था; यह तथ्य कि वह एक सामान्य मानव विकास प्रक्रिया से होकर गुज़रा आगे प्रदर्शित करता है कि वह एक सामान्य देह था; और इसके अलावा, उसका कार्य इस बात का पर्याप्त सबूत हैं कि वह परमेश्वर के वचन, परमेश्वर के आत्मा, का देह बनना था। कार्य की आवश्यकताओं की वजह से परमेश्वर देहधारी बनता है; दूसरे शब्दों में, कार्य का यह चरण देह में पूर्ण किए जाने, सामान्य मानवता में पूर्ण किए जाने की आवश्यकता थी। यही "वचन का देहधारी होना" के लिए, "वचन का देह में प्रकट होना" के लिए पूर्वापेक्षा है, और परमेश्वर के दो देहधारणों के पीछे की सच्ची कहानी है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर द्वारा आवासित देह का सार" से
परमेश्वर देह बनता है यह मनुष्य को परमेश्वर की देह को जानने की अनुमति देने के अभिप्राय से नहीं है, या देहधारी परमेश्वर की देह और मनुष्य की देह के बीच भेद करने की अनुमति देने के लिए नहीं है; मनुष्य की विवेक की योग्यता को प्रशिक्षित करने के लिए परमेश्वर देह नहीं बनता है, मनुष्य के लिए इस अभिप्राय के साथ तो बिलकुल भी नहीं कि वह परमेश्वर के देहधारी देह की आराधना करे, जिससे उसे बड़ी महिमा मिलेगी। इसमें से कुछ भी परमेश्वर के देह बनने के लिए मूल इच्छा नहीं है। मनुष्य की निन्दा करने के लिए, जानबूझकर मनुष्य को प्रकट करने के लिए, या चीज़ों को मनुष्य के लिए कठिन बनाने के लिए परमेश्वर देह नहीं बनता है। इनमें से कोई भी परमेश्वर की मूल इच्छा नहीं है। हर बार जब परमेश्वर देह बनता है, तो यह ऐसा कार्य है जो अपरिहार्य है। यह उसके बड़े कार्य और उसके बड़े प्रबंधन के लिए है कि वह ऐसा करता है, और उन कारणों के लिए नहीं है जिनकी मनुष्य कल्पना करता है। परमेश्वर पृथ्वी पर केवल तभी आता है जब उसके कार्य के द्वारा अपेक्षित होता है, और हमेशा जब आवश्यकता होती है। वह पृथ्वी पर घूमने-फिरने के इरादे से नहीं आता है, बल्कि उस कार्य को करने लिए आता है जो उसे अवश्य करना चाहिए। अन्यथा वह इतने भारी उत्तरदायित्व को क्यों ग्रहण करेगा और इस कार्य को करने के लिए इतना बड़ा जोखिम लेगा? केवल तभी परमेश्वर देह बनता है जब उसे ऐसा करना है, और वह हमेशा एक अद्वितीय महत्व के साथ देह बनता है। यदि यह सिर्फ मनुष्य को उस पर एक नज़र डालने और अपनी आँखों को खोलेने की अनुमति देने के लिए होता, तो वह, पूरी निश्चितता के साथ, इतनी तुच्छता से मनुष्य के बीच कभी नहीं आता। वह पृथ्वी पर अपने प्रबंधन और अपने बड़े काम के लिए, और अपने लिए बहुत से लोगों को प्राप्त करने में सक्षम होने के लिए आता है। वह उस युग का प्रतिनिधित्व करने के लिए और शैतान को पराजित करने के लिए आता है, और वह शैतान को पराजित करने के लिए देह में आता है। इसके अतिरिक्त, वह समस्त मानवजाति की उनकी ज़िन्दगियों में अगुवाई करने के लिए आता है। यह सब कुछ उसके प्रबंधन से सम्बन्धित है, और ऐसा कार्य है जो पूरे विश्व से सम्बन्धित है। यदि परमेश्वर मनुष्य को मात्र अपनी देह को जानने की अनुमति देने और मनुष्य की आँखें खोलने के लिए देह बना होता, तो वह हर देश की यात्रा क्यों नहीं करता? क्या यह अत्यधिक आसानी का मामला नहीं है? परन्तु उसने ऐसा नहीं किया, इसके बजाए बसने और उस कार्य को आरंभ करने के लिए एक उपयुक्त स्थान को चुनता है जो उसे अवश्य करना चाहिए। केवल यह अकेला देह ही अत्यधिक महत्व का है। वह संपूर्ण युग का प्रतिनिधित्व करता है, और साथ ही एक संपूर्ण युग के कार्य को भी करता है; वह पुराने युग का समापन और नए युग का सूत्रपात दोनों करता है। यह समस्त महत्वपूर्ण मामला है जो परमेश्वर के प्रबंधन से संबंधित है, और पृथ्वी पर आए परमेश्वर द्वारा किए गए कार्य के एक चरण का महत्व है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "देहधारण का रहस्य (3)" से
देहधारी परमेश्वर की वजह से मनुष्य परमेश्वर से पूर्ण उद्धार प्राप्त करता है, न कि सीधे तौर पर स्वर्ग को की गई अपनी प्रार्थनाओं से। क्योंकि मनुष्य शरीरी है; मनुष्य परमेश्वर के आत्मा को देखने में असमर्थ है और उस तक पहुँचने में तो बिलकुल भी समर्थ नहीं है। मनुष्य केवल परमेश्वर के देहधारी देह के साथ ही सम्बद्ध हो सकता है; केवल उसके माध्यम से ही मनुष्य सारे वचनों और सारी सच्चाईयों को समझ सकता है, और पूर्ण उद्धार प्राप्त कर सकता है। दूसरा देहधारण मनुष्य को पापों से पीछा छुड़ाने और मनुष्य को पूरी तरह से पवित्र करने के लिए पर्याप्त है। इसलिए, दूसरा देहधारण देह में परमेश्वर के सभी कार्य को समाप्त करेगा और परमेश्वर के देहधारण के महत्व को पूर्ण करेगा। उसके बाद, देह में परमेश्वर का काम पूरी तरह समाप्त हो जाएगा। दूसरे देहधारण के बाद, वह अपने कार्य के लिए पुन: देह नहीं बनेगा। क्योंकि उसका सम्पूर्ण प्रबंधन समाप्त हो जाएगा। अंत के दिनों में, उसका देहधारण अपने चुने हुए लोगों को पूरी तरह से प्राप्त कर लेगा, और अंत के दिनों में सभी मनुष्यों को उनके प्रकार के अनुसार विभाजित कर दिया जाएगा। वह उद्धार का कार्य अब और नहीं करेगा, और न ही वह किसी कार्य को करने के लिए देह में लौटेगा।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "देहधारण का रहस्य (4)" से
पहले देहधारी परमेश्वर ने देहधारण के कार्य को पूर्ण नहीं किया; उसने उस कार्य के पहले चरण को ही पूर्ण किया जिसे देह में होकर करना परमेश्वर के लिए आवश्यक था। इसलिए, देहधारण के कार्य को समाप्त करने के लिए, परमेश्वर एक बार पुनः देह में वापस आया, देह की समस्त सामान्यता और वास्तविकता में जीवित रहा, अर्थात्, पूरी सामान्य और साधारण देह में परमेश्वर के वचन को प्रकट किया, इस प्रकार उस कार्य का समापन किया जिसे उसने देह में अधूरा छोड़ दिया था। दूसरा देहधारी देह सार रूप में पहले के ही समान है, बल्कि और भी अधिक वास्तविक था, यहाँ तक कि पहले से भी अधिक समान्य है। परिणामस्वरूप, दूसरी देहधारी देह जो पीड़ा सहती है वह पहले वाले से अधिक है, किन्तु यह पीड़ा देह में उसकी सेवकाई के परिणामस्वरूप है, जो कि एक भ्रष्ट मानव की पीड़ा से भिन्न है। यह भी उसकी देह की सामान्यता और वास्तविकता से उत्पन्न होती है। क्योंकि वह अपनी सेवकाई को सर्वथा सामान्य और वास्तविक देह में करता है, इसलिए उसकी देह को अत्यधिक कठिनाई को अवश्य सहना चाहिए। जितना अधिक सामान्य और वास्तविक उसकी देह होगी, उतना ही अधिक वह अपनी सेवकाई करने में भुगतेगा। परमेश्वर एक बहुत ही आम देह में कार्य करता है, ऐसी देह जो कि बिल्कुल भी अलौकिक नहीं है। क्योंकि उसकी देह सामान्य है और उसे मनुष्य को बचाने के कार्य का दायित्व भी अवश्य लेना चाहिए, इसलिए वह अलौकिक देह की अपेक्षा और भी अधिक माप में पीड़ा को भुगतता है—ये सभी पीड़ाएँ उसकी देह की वास्तविकता और सामान्यता से उत्पन्न होती हैं। अपनी सेवकाई को करते समय जिन पीड़ाओं से दोनों देहधारी देहें गुज़री हैं, उनसे कोई भी देहधारी देह के सार को देख सकता है। देह जितना अधिक समान्य होगी, कार्य करने के समय उतनी ही अधिक कठिनाई वह सहेगी; कार्य को करने वाली देह जितना अधिक वास्तविक होगी, उतनी ही अधिक कठोर अवधारणाएँ लोग रखते हैं, और उतने ही अधिक खतरे उस पर पड़ने की संभावना होती है। और फिर भी, देह जितना अधिक वास्तविक होती है, और देह जितनी अधिक आवश्यकताओं और सामान्य मानवजाति की पूरी भावना को धारण करती है, उतना ही अधिक वह परमेश्वर के कार्य को देह में सँभालने में सक्षम होती है। यह यीशु की देह थी जिसे सलीब पर चढ़ाया गया था, उसकी देह जिसे उसने पाप बलि के रूप में त्याग दिया था; यह सामान्य मानवता वाली देह के माध्यम से था कि उसने शैतान को हराया और सलीब से मनुष्य को पूरी तरह से बचाया। और यह पूरी देह के रूप में है कि दूसरा देहधारी परमेश्वर विजय का कार्य करता है और शैतान को हराता है। केवल ऐसी देह जो पूरी तरह से सामान्य और वास्तविक है वही विजय के कार्य को अपनी सम्पूर्णता से कर और एक सशक्त गवाही बना सकती है। अर्थात्, मनुष्य को जीतने के कार्य[क] को देह में परमेश्वर की वास्तविकता और सामान्यता के माध्यम से प्रभावशाली बनाया जा सकता है, न कि अलौकिक अचम्भों और प्रकटनों के माध्यम से। इस देहधारी परमेश्वर की सेवकाई बोलना, और इसके द्वारा मनुष्य को जीतना और पूर्ण बनाना है; दूसरे शब्दों में, देह में साकार हुआ पवित्रात्मा का कार्य, देह का कर्तव्य, बालना और इस के द्वारा मनुष्य को पूरी तरह से जीतना, प्रकट करना, पूर्ण बनाना और हटाना है। और इसलिए, यह विजय के कार्य में है कि देह में परमेश्वर का कार्य पूरी तरह से सम्पन्न किया जाएगा। आरंभिक छुटकारे का कार्य देहधारण के कार्य का आरम्भ था; विजय का कार्य करने वाली देह देहधारण के समस्त कार्य को पूर्ण करेगी। लिंग रूप में, एक पुरुष और दूसरा महिला है; इसमें परमेश्वर के देहधारण का अर्थ पूर्ण हो गया है। यह परमेश्वर के बारे में मनुष्य की मिथ्या-धारणा को दूर करता हैः परमेश्वर पुरुष और महिला दोनों बन सकता है और देहधारी परमेश्वर सार से लिंगहीन है। परमेश्वर ने पुरुष और महिला दोनों को बनाया, और वह लिंगों के बीच विभेद नहीं करता है। कार्य के इस चरण में परमेश्वर संकेतों और चमत्कारों को नहीं दिखाता है, ताकि कार्य वचनों के माध्यम से अपने परिणाम प्राप्त करेगा। इसके अलावा, इस समय का देहधारी परमेश्वर का कार्य बीमार को चंगा करना और दुष्टात्माओं को निकालना नहीं है, बल्कि बोलने के माध्यम से मनुष्य को जीतना है, जिसका अर्थ है कि परमेश्वर की इस देहधारी देह द्वारा धारण की गई पैदाइशी योग्यता वचन बोलना और मनुष्य को जीतना है, न कि बीमार को चंगा करना और दुष्टात्माओं को निकालना। सामान्य मानवता में उसका कार्य अचम्भों को करना नहीं है, बीमार को चंगा करना और दुष्टात्माओं को निकालना नहीं है, बल्कि बोलना है, और इसलिए दूसरा देहधारी देह लोगों को पहले वाले की तुलना में अधिक सामान्य प्रतीत हुआ। लोग देखते हैं कि परमेश्वर का देहधारण झूठ नहीं है; परन्तु देहधारी परमेश्वर यीशु के देहधारण से भिन्न है, और यद्यपि वे दोनों ही परमेश्वर के देहधारण हैं, परन्तु वे पूरी तरह से एकही नहीं हैं। यीशु सामान्य मानवता और साधारण मानवता को धारण करता था, किन्तु उसके साथ कई संकेत और चमत्कार थे। इस देहधारी परमेश्वर में, मानवीय आखों को कोई भी संकेत या चमत्कार नहीं दिखाई देंगे, न ही बीमार चंगे होते हुए दिखाई देंगे, न ही दुष्टात्माएँ बाहर निकाली जाती हुई दिखाई देंगी, न ही समुद्र पर चलना, न ही चालीस दिन तक उपवास करना दिखाई देगा ... वह उसी कार्य को नहीं करता है जो यीशु ने किया, इस वजह से नहीं कि उसका देह सार रूप में यीशु से कुछ भी भिन्न था, बल्कि क्योंकि बीमार को चंगा करना और दुष्टात्माओं को निकालना उसकी सेवकाई नहीं थी। उसने अपने स्वयं के कार्य को ध्वस्त नहीं किया, अपने कार्य में विघ्न नहीं डाला। चूँकि वह मनुष्य को अपने वास्तविक वचनों से जीतता है, इसलिए उसे अचम्भों के साथ वश में करने की आवश्यकता नहीं है, और इसलिए यह चरण देहधारण के कार्य को पूरा करने के लिए है। आज तुम जिस देहधारी परमेश्वर को देखते हो वह पूरी तरह से एक देह है, और उसके बारे में कुछ भी अलौकिक नहीं है। पूरी तरह से देह होने के कारण, वह दूसरों की तरह ही बीमार पड़ता है, उसे ठीक अन्य लोगों के समान ही भोजन और कपड़ों की आवश्यकता होती है। यदि इस समय के आसपास, देहधारी परमेश्वर अलौकिक संकेतों और चमत्कारों को दिखाता, यदि वह बीमारों को चंगा करता, दुष्टात्माओं को निकालता, या एक वचन से मार सकता, तो विजय का कार्य किस प्रकार से किया जा सकता था? कार्य को बुतपरस्तों में कैसे फैलाया जा सकता था? बीमार को चंगा करना और दुष्टात्माओं को निकालना अनुग्रह के युग का कार्य था, छुटकारे के कार्य का पहला चरण था, और अब जबकि परमेश्वर ने सलीब से लोगों को बचा लिया है, इसलिए वह उस कार्य को अब और नहीं करता है। यदि अंत के दिनों में यीशु के जैसा ही कोई "परमेश्वर" प्रकट हो जाता, जो बीमार को चंगा करता और दुष्टात्माओं को निकालता, और मनुष्य के लिए सलीब पर चढ़ाया जाता, तो वह "परमेश्वर", यद्यपि बाइबिल में वर्णित परमेश्वर के समरूप होता और स्वीकार करने में मनुष्य के लिए आसान होता, किन्तु अपने सार रूप में, परमेश्वर के आत्मा के द्वारा नहीं, बल्कि एक दुष्टात्मा द्वारा पहना गया देह होता। क्योंकि जो उसने पहले ही पूरा कर लिया है उसे कभी नहीं दोहराना, यह परमेश्वर के कार्य का सिद्धान्त है। इसलिए परमेश्वर के दूसरे देहधारण का कार्य पहले देहधारण के कार्य से भिन्न है। अंत के दिनों में, परमेश्वर विजय का कार्य एक सामान्य और साधारण देह में पूरा करता है; वह बीमार को चंगा नहीं करता है, मनुष्य के लिए सलीब पर नहीं चढ़ाया जाएगा, बल्कि केवल देह में वचनों को कहता है, देह में मानव को जीतता है। केवल ऐसा देह ही देहधारी परमेश्वर का देह है; केवल ऐसा देह ही देह में परमेश्वर के कार्य को पूर्ण कर सकता है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर द्वारा आवासित देह का सार" से
मैं ऐसा क्यों यह कहता हूँ कि देहधारण का अर्थ यीशु के कार्य में पूर्ण नहीं हुआ था? क्योंकि वचन पूरी तरह से देहधारी नहीं हुआ? यीशु ने जो किया वह देह में परमेश्वर के कार्य को करने का केवल एक अंश ही था; उसने केवल छुटकारे का कार्य किया और मनुष्य को पूरी तरह से प्राप्त करने का कार्य नहीं किया। इसी कारण से परमेश्वर एक बार पुनः अंत के दिनों में देह बना। कार्य का यह चरण भी एक सामान्य देह में किया गया, एक सर्वथा सामान्य मानव द्वारा किया गया, जिसकी मानवता अंश मात्र भी सर्वोत्कृष्ट नहीं है। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर पूरी तरह से इंसान बन गया, और यही ऐसा व्यक्ति है जिसकी पहचान परमेश्वर की पहचान है, एक पूर्ण मानव, एक पूर्ण देह, जो कार्य कर रहा है। मानवीय आँखों के लिए, वह केवल एक देह है जो बिल्कुल भी सर्वोत्कृष्ट नहीं है, एक अति सामान्य व्यक्ति है जो स्वर्ग की भाषा बोल सकता है, जो कोई भी अद्भुत संकेत और चमत्कार नहीं दिखाता है, कोई अचम्भे नहीं दिखाता है, वृहद सभा कक्षों में धर्म के बारे में आंतरिक सत्य को प्रकट तो बिल्कुल नहीं कर सकता है। दूसरे देहधारी देह का कार्य लोगों को सर्वथा पहले के असदृश प्रतीत होता है, इतना अधिक कि दोनों में कुछ भी आम नहीं प्रतीत होता है, और पहले के कार्य का कुछ भी इस समय में नहीं देखा जा सकता है। यद्यपि दूसरे देहधारण के देह का कार्य पहले वाले से भिन्न है, जिससे यह सिद्ध नहीं होता है कि उनका स्रोत एक ही नहीं है। उनका स्रोत एकही है या नहीं यह देहों द्वारा किए गए कार्य की प्रकृति पर निर्भर करता है और न कि उनके बाहरी आवरणों पर। अपने कार्य के तीन चरणों के दौरान, परमेश्वर ने दो बार देहधारण किया है, और दोनों बार देहधारी परमेश्वर के कार्य ने एक नए युग का शुभारंभ किया, एक नए कार्य का सूत्रपात किया; देहधारण एक दूसरे के पूरक हैं। मानवीय आँखों के लिए यह बताना असम्भव है कि दो देह वास्तव में एक ही स्रोत से आते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं है, यह मानवीय आँखों या मानवीय मन की क्षमता से बाहर है। किन्तु अपने सार में वे एकही हैं, क्योंकि उनका कार्य एकही पवित्रात्मा से उत्पन्न होता है। दोनों देहधारी देह एकही स्रोत से उत्पन्न होते हैं या नहीं यह उस युग और उस स्थान से जिसमें वे पैदा हुए थे, या ऐसे ही अन्य कारकों से नहीं, बल्कि उनके द्वारा व्यक्त किए गए दिव्य कार्य द्वारा तय किया जा सकता है। दूसरा देहधारी देह किसी भी उस कार्य को नहीं करता है जो यीशु ने किया था, क्योंकि परमेश्वर का कार्य किसी परंपरा का पालन नहीं करता है, बल्कि प्रत्येक बार वह एक नए मार्ग को खोलता है। दूसरे देहधारी देह का लक्ष्य, लोगों के मन पर पहली देह के प्रभाव को गहरा या दृढ़ करना नहीं है, बल्कि इस पूरक करना और पूर्ण बनाना है, परमेश्वर के बारे में मनुष्य के ज्ञान को गहरा करना है, उन सभी नियमों को तोड़ना है जो लोगों के हृदयों में विद्यमान हैं, और उनके हृदयों में परमेश्वर की भ्रामक छवि को मिटाना है। ऐसा कहा जा सकता है कि परमेश्वर स्वयं के कार्य का कोई भी अकेला चरण मनुष्य को उसके बारे में पूरा ज्ञान नहीं दे सकता है; प्रत्येक केवल एक भाग को देता है, न कि सम्पूर्ण को। यद्यपि परमेश्वर ने अपने स्वभाव को पूरी तरह से व्यक्त कर दिया है, किन्तु मनुष्य की समझ की सीमित आंतरिक शक्तियों की वजह से, परमेश्वर के बारे में उसका ज्ञान अभी भी अपूर्ण रहता है। मानव भाषा का उपयोग करके, परमेश्वर के स्वभाव की समग्रता को संप्रेषित करना असम्भव है; उसके कार्य का एक चरण परमेश्वर को पूरी तरह से कितना कम व्यक्त कर सकता है? वह देह में अपनी सामान्य मानवता की आड़ में कार्य करता है, और कोई भी उसे केवल उसकी दिव्यता की अभिव्यक्तियों के द्वारा ही जान सकता है, न कि उसके शारीरिक आवरण के द्वारा। परमेश्वर मनुष्य को परमेश्वर को उसके विभिन्न कार्यों के माध्यम से जानने देने के लिए देह में आता है और उसके कार्य के कोई भी दो चरण एक जैसे नहीं होते हैं। केवल इस प्रकार से ही मनुष्य, एक अकेले पहलू तक सीमित न हो कर, देह में परमेश्वर के कार्य का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर सकता है। यद्यपि दो देहधारणों की देहों के कार्य भिन्न हैं, किन्तु देहों का सार, और उनके कार्यों का स्रोत समरूप है; यह केवल इतना ही है कि वे कार्य के दो विभिन्न चरणों को करने के लिए अस्तित्व में हैं, और दो विभिन्न युगों में सामने आते हैं। कुछ भी हो, देहधारी परमेश्वर के देहें एक ही सार और एक ही स्रोत को साझा करते हैं—यह एक सत्य है जिसे कोई मना नहीं कर सकता है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर द्वारा आवासित देह का सार" से
यीशु ने कार्य का एक चरण किया, जिसने केवल "वचन परमेश्वर के साथ था" के सार को पूरा किया: परमेश्वर का सत्य परमेश्वर के साथ था, और परमेश्वर का आत्मा देह के साथ था और उससे अभिन्न था, अर्थात्, देहधारी परमेश्वर का देह परमेश्वर के आत्मा के साथ था, जो कि एक अधिक बड़ा प्रमाण है कि देहधारी यीशु परमेश्वर का प्रथम देहधारण था। कार्य के इस चरण ने "वचन देह बनता है" के आंतरिक अर्थ को पूरा किया, "वचन परमेश्वर के साथ था, और वचन परमेश्वर था", को और गहन अर्थ प्रदान किया और तुम्हें इन वचनों पर दृढ़ता से विश्वास करने की अनुमति देता है, कि "आरंभ में वचन था"। कहने का अर्थ है, कि सृजन के समय परमेश्वर वचन से सम्पन्न था, उसके वचन उसके साथ थे और उससे अभिन्न थे, और अंतिम युग उसके वचनों की सामर्थ्य और उसके अधिकार को और भी अधिक स्पष्ट करता है, और मनुष्य को परमेश्वर के सभी वचनों को देखने की—उसके सभी वचनों को सुनने की अनुमति देता है। ऐसा है अंतिम युग का कार्य।…क्योंकि यह दूसरे देहधारण का कार्य है—और आख़िरी बार जब परमेश्वर देह बनता है—यह उसके देहधारण के महत्व को पूर्णतः पूरा कर देता है, देह में परमेश्वर के समस्त कार्य को पूरी तरह से कार्यान्वित करता और प्रकट करता है, और परमेश्वर के देह में होने के युग का अंत करता है इस प्रकार।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "अभ्यास (4)" से
देह में प्रगट परमेश्वर के व्यक्तिगत कार्य ने पहले से ही परमेश्वर के समूचे प्रबंधन के कार्य का नब्बे प्रतिशत कार्य पूरा कर लिया है। इस देह ने उसके समस्त कार्य को एक बेहतर शुरूआत, और उसके समस्त कार्य के लिए एक सारांश प्रदान किया है, और उसके समस्त कार्य की घोषणा की है, और इस समस्त कार्य के लिए फिर से सम्पूर्ण आपूर्ति की है। इसके पश्चात्, परमेश्वर के कार्य के चौथे चरण को करने के लिए और कोई दूसरा देहधारी परमेश्वर नहीं होगा, और परमेश्वर के तीसरे देहधारण का और कोई चमत्कारीय कार्य नहीं होगा।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "भ्रष्ट मानवजाति को देह धारण किए हुए परमेश्वर के उद्धार की अत्यधिक आवश्यकता है" से
(परमेश्वर के वचन का चुना गया अवतरण)
देहधारण के महत्व को दो देहधारण पूरा करते हैं
परमेश्वर के द्वारा किए गए कार्य के प्रत्येक चरण का एक वास्तविक महत्व है। जब यीशु का आगमन हुआ, वह पुरुष था, और इस बार वह स्त्री है। इससे, तुम देख सकते हो कि परमेश्वर ने अपने कार्य के लिए पुरुष और स्त्री दोनों का सृजन किया और वह लिंग के बारे में कोई भी भेदभाव नहीं करता है। जब उसका आत्मा आगमन करता है, तो वह इच्छानुसार किसी भी देह को धारण कर सकता है और वह देह उसका ही प्रतिनिधित्व करती है। चाहे यह पुरुष हो या स्त्री, दोनों ही परमेश्वर को प्रकट करते हैं क्योंकि यह उसका देहधारी शरीर है। यदि यीशु एक स्त्री के रूप में आ जाता और प्रकट हो जाता, दूसरे शब्दों में, यदि पवित्र आत्मा के द्वारा एक शिशु कन्या, न कि एक लड़का, गर्भधारण किया जाना होता, तब भी कार्य का वह चरण उसी तरह से पूरा किया गया होता। यदि ऐसा है, कि इसके बजाय कार्य का यह स्तर एक पुरुष के द्वारा पूरा किया जाना होता और तब भी वह कार्य उसी तरह से पूरा किया जाता। दोनों ही चरणों में किया गया कार्य महत्वपूर्ण है; कोई भी कार्य दोहराया नहीं जाता है या एक-दूसरे का विरोध नहीं करता है। अपने कार्य के समय में, यीशु को इकलौता पुत्र कहा गया, जो पुरुष लिंग का संकेत करता है। तो फिर इस चरण में इकलौते पुत्र का उल्लेख क्यों नहीं किया जाता है? ऐसा इसलिए है क्योंकि कार्य की आवश्यकताओं ने लिंग में बदलाव को आवश्यक बना दिया जो कि यीशु के लिंग से भिन्न हो। परमेश्वर लिंग के बारे में कोई भी भेदभाव नहीं करता है। उसका कार्य वैसे ही होता है जैसी वह इच्छा करता है और किसी प्रतिबंध के अधीन नहीं है, विशेषकर यह स्वतंत्र है, परन्तु प्रत्येक चरण का एक वास्तविक महत्व है। परमेश्वर ने दो बार देहधारण किया, और कहने की आवश्यकता नहीं कि अंत के दिनों में उसका देहधारण अंतिम बार है। वह अपने सभी कर्मों को प्रकट करने के लिए आया है। यदि इस चरण पर वह मनुष्य के द्वारा गवाही दिए जाने के लिए व्यक्तिगत रूप से कार्य करने के लिए देह धारण नहीं करता, तो मनुष्य हमेशा के लिए यही अवधारणा बनाए रखता कि परमेश्वर सिर्फ पुरुष है, स्त्री नहीं। इससे पहले, सब मानते थे कि परमेश्वर सिर्फ पुरुष ही हो सकता और कि एक स्त्री को परमेश्वर नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि सभी पुरुष को स्त्री पर अधिकार रखने वाला मानते थे। वे मानते थे कि कोई भी स्त्री अधिकार को धारण नहीं कर सकती है, बल्कि सिर्फ पुरुष ही धारण कर सकता है। वे तो यहाँ तक कहते थे कि पुरुष स्त्री का मालिक है और कि स्त्री को पुरुष की आज्ञा का पालन अवश्य करना चाहिए और वह उस से श्रेष्ठ नहीं हो सकती है। अतीत में जब ऐसा कहा गया था कि पुरुष स्त्री का मालिक है, तो यह आदम और हव्वा के संबंध में कहा गया था जिन्हें सर्प के द्वारा छला गया था, न कि उस पुरुष और स्त्री के बारे में जिन्हें आरंभ में यहोवा द्वारा सृजन किया गया था। निस्संदेह, एक स्त्री को अपने पति की आज्ञापालन और उससे प्रेम अवश्य करना चाहिए, उसी तरह से एक पुरुष को अपने परिवार का भरण पोषण करना अवश्य सीखना चाहिए। ये नियम और आदेश हैं जो यहोवा के द्वारा निर्धारित किए गए हैं जिनका मानवजाति द्वारा पृथ्वी पर अपने जीवनों में अवश्य पालन किया जाना चाहिए। यहोवा ने स्त्री से कहा, "तेरी लालसा तेरे पति की ओर होगी, और वह तुझ पर प्रभुता करेगा।" यह सिर्फ इसलिए कहा गया था ताकि मानवजाति (अर्थात् पुरुष और स्त्री दोनों) यहोवा के प्रभुत्व के अधीन सामान्य जीवन जी सके, ताकि मानवजाति के जीवन की संरचना हो और उसका जीवनक्रम न खोए। इसलिए, यहोवा ने उपयुक्त नियम बनाए कि कैसे पुरुष और स्त्री को क्रिया करनी चाहिए, परन्तु ये सब मात्र पृथ्वी पर रहने वाले प्राणियों के सन्दर्भ में थे न कि देहधारी परमेश्वर की देह के सन्दर्भ में। परमेश्वर अपनी ही सृष्टि के समान कैसे हो सकता था? उसके वचन सिर्फ उसके द्वारा सृजन की गई मानवजाति के लिए ही निर्देशित थे; ये नियम पुरुष और स्त्री के लिए निर्धारित किए गए थे ताकि इस तरह की मानवजाति सामान्य जीवन जी सके। आरंभ में, जब यहोवा ने मानव जाति का सृजन किया, तो उसने पुरुष और स्त्री दोनों को बनाया; इसलिए, उसका देहधारी शरीर भी पुरुष या स्त्री में विभेदित हो गया। उसने अपना कार्य आदम और हव्वा को बोले गए वचनों के आधार पर तय नहीं किया। दोनों बार जब उसने देहधारण किया तो यह पूरी तरह से उसकी तब की सोच के अनुसार था जब उसने सबसे पहले मानवजाति की रचना की थी। अर्थात्, उसने अपने दो देहधारणों के कार्य को पुरुष और स्त्री के आधार पर पूरा किया जिन्हें भ्रष्ट नहीं किया गया था। यदि मनुष्य उन वचनों को जो यहोवा के द्वारा आदम और हव्वा से कहे गए थे जिन्हें सर्प के द्वारा छला गया था, परमेश्वर के देहधारण के कार्य पर लागू करता है, तो क्या यीशु को अपनी पत्नी से वैसा ही प्रेम नहीं करना पड़ता जैसे कि उसे करना चाहिए था? क्या परमेश्वर तब भी परमेश्वर ही रहता? यदि ऐसा होता, तो क्या वह अपना कार्य पूरा कर सकता है? यदि देहधारी परमेश्वर का स्त्री बनना गलत है, तो क्या जब परमेश्वर ने स्त्री की रचना की तो यह एक बड़ी गलती नहीं रही होती? यदि मनुष्य अब भी मानता है कि परमेश्वर का स्त्री देहधारण करना गलत है, तो क्या यीशु का देहधारण, जिसने विवाह नहीं किया और इसलिए अपनी पत्नी से प्रेम नहीं कर पाया, ऐसी ही त्रुटी नहीं होती जैसी कि वर्तमान देहधारण की है? चूँकि तुम यहोवा के द्वारा हव्वा को बोले गए वचनों को आज परमेश्वर के देहधारण के सत्य को मापने के लिए उपयोग करते हो, इसलिए तुम्हें प्रभु यीशु, जिसने अनुग्रह के युग में देहधारण किया, के बारे में राय बनाने के लिए यहोवा के द्वारा आदम को बोले गए वचनों का अवश्य उपयोग करना चाहिए। क्या ये दोनों एक ही नहीं हैं? चूँकि तुम प्रभु यीशु के बारे में उस पुरुष के हिसाब से राय बनाते हो जिसे सर्प के द्वारा छला नहीं गया था, तुम आज देहधारण के सत्य के बारे में उस स्त्री के हिसाब से राय नहीं बना सकते हो जिसे सर्प के द्वारा छला गया था। यह अनुचित है! यदि तुम ऐसी राय बनाते हो, तो यह तुम्हारे विवेक के अभाव को साबित करता है। जब यहोवा ने दो बार देहधारण किया, उसके देहधारण का लिंग पुरुष और स्त्री से सम्बंधित था जिसे सर्प के द्वारा छला नहीं गया था। उसने दो बार ऐसे पुरुष और स्त्री के अनुरूप देहधारण किया जिसे सर्प के द्वारा नहीं छला गया था। ऐसा न सोचें कि यीशु का पुरुषत्व वैसा ही था जैसा कि आदम का जिसे सर्प के द्वारा छला गया था। वह उस से पूरी तरह से असम्बंधित है, और वे दो विभिन्न प्रकृति के पुरुष हैं। निश्चय ही ऐसा नहीं हो सकता है कि यीशु का पुरुषत्व यह साबित करता है कि सिर्फ वह ही सारी स्त्रियों का मालिक है किन्तु सभी पुरुषों का नहीं? क्या वह सभी यहूदियों (पुरुषों और स्त्रियों दोनों के सहित) का राजा नहीं है? वह परमेश्वर स्वयं है, न कि सिर्फ स्त्री का मालिक है बल्कि पुरुष का भी मालिक है। वह सभी प्राणियों का प्रभु और सभी प्राणियों का मालिक है। तुम यीशु के पुरुषत्व को स्त्री के मालिक का प्रतीक होना कैसे निर्धारित कर सकते हो? क्या यह ईशनिंदा नहीं है? यीशु एक पुरुष है जिसे भ्रष्ट नहीं किया गया है। वह परमेश्वर है; वह मसीह है; वह प्रभु है। वह आदम की तरह का पुरुष कैसे हो सकता है जो भ्रष्ट हो गया था? यीशु वह देह है जिसे परमेश्वर के अति पवित्र आत्मा ने पहना हुआ है। तुम कैसे कह सकते हो कि वह एक परमेश्वर है जो आदम के पुरुषत्व को धारण किए हुए है? तो क्या परमेश्वर का समस्त कार्य गलत नहीं हो गया होता? क्या यहोवा यीशु के भीतर आदम के पुरुषत्व को समाविष्ट कर सकता था जिसे छला गया था? क्या वर्तमान में देहधारण देहधारी परमेश्वर का दूसरा कार्य नहीं है जो कि यीशु के लिंग से भिन्न परन्तु प्रकृति में यीशु के ही समान है? क्या तुम अब भी यह कहने का साहस करते हो कि देहधारी परमेश्वर स्त्री नहीं हो सकता है क्योंकि यह स्त्री थी जो सबसे पहले सर्प के द्वारा छली गई थी? क्या तुम अब भी यह कहने का साहस करते हो कि स्त्री सबसे अधिक अशुद्ध है और मानवजाति की भ्रष्टता का मूल है, इसलिए परमेश्वर संभवतः एक स्त्री के रूप में देह धारण नहीं कर सकता है? क्या तुम अब भी यह कहने का साहस करते हो कि "स्त्री हमेशा पुरुष की आज्ञापालन करेगी और कभी भी परमेश्वर को अभिव्यक्त या प्रत्यक्ष रूप से परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती है?" अतीत में तुम नहीं समझे; क्या तुम अब भी परमेश्वर के कार्य की, विशेषकर परमेश्वर के देहधारी शरीर की ईशनिंदा कर सकते हो? यदि तुम यह स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते हो, तो अच्छा होगा कि तुम अपनी जुबान पर लगाम लगाओ, ऐसा न हो कि तुम्हारी मूर्खता और अज्ञानता प्रकट हो जाए और तुम्हारी कुरूपता उजागर हो जाए। यह मत सोचो कि तुम सब कुछ समझते हो। मैं तुम्हें बता दूँ कि तुमने जो कुछ भी देखा और अनुभव किया है वह यहाँ तक कि मेरी प्रबन्धन योजना के एक हजारवें हिस्से को समझने के लिए भी अपर्याप्त है। तो फिर क्यों तुम इतने अभिमानी हो? तुम्हारी मात्र जरा सी प्रतिभा और अल्पतम ज्ञान यीशु के कार्य में एक पल के लिए भी उपयोग किए जाने के लिए अपर्याप्त है! तुम्हें वास्तव में कितना अनुभव है? तुमने अपने जीवनभर में जो देखा और जो कुछ सुना है और जिसकी तुमने कल्पना की है वह मेरे एक क्षण के कार्य से भी कम है! तुम्हारे लिए यही अच्छा होगा कि तुम आलोचनात्मक न बनो और दोष मत ढूँढो। चाहे तुम कितने भी अभिमानी हो, फिर भी तुम चींटी से भी कम एक प्राणी हो! तुम्हारे पेट में जो कुछ भी है वह एक चींटी के पेट में जो है उससे भी कम है! यह मत सोचो कि क्योंकि तुमने बहुत अनुभव कर लिया है और वरिष्ठ हो गए हो, इसलिए तुम बेलगाम घमण्ड के साथ बोल और कार्यकलाप कर सकते हो। क्या तुम्हारे अनुभव और तुम्हारी वरिष्ठता उन वचनों के परिणामस्वरूप नहीं है जो मैंने कहे हैं? क्या तुम यह मानते हो कि वे तुम्हारे परिश्रम और कड़ी मेहनत के द्वारा अर्जित किए गए हैं? आज, तुम मेरे देहधारण को देखते हो, और परिणामस्वरूप तुम्हारी ऐसी समृद्ध धारणाएँ हो जाती हैं, जिनसे अनगिनत अवधारणाएँ आती हैं। यदि मेरे देहधारण के कारण नहीं है, तो फिर कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारी प्रतिभाएँ कितनी असाधारण हैं, तुम्हारे पास इतनी धारणाएँ नहीं होती। क्या तुम्हारी अवधारणाएँ इससे नहीं उभरी हैं? यदि यीशु पहली बार देहधारण नहीं करते, तो तुम देहधारण के बारे में क्या जानते? क्या यह पहले देहधारण के तुम्हारे ज्ञान के कारण नहीं है कि तुम ढिठाई से दूसरे देहधारण के बारे में राय बनाते हो? तुम्हें एक आज्ञाकारी अनुयायी बनने के बजाय क्यों इसकी जाँच करनी चाहिए? तुमने इस धारा में प्रवेश कर लिया है देहधारी परमेश्वर के सामने आ गए हो। तुम्हें अध्ययन करने की अनुमति कैसे दी जा सकती है? तुम्हारा अपने स्वयं के परिवार के इतिहास का अध्ययन करना ठीक है, परन्तु यदि तुम परमेश्वर के "परिवार के इतिहास" का अध्ययन करते हो, तो आज का परमेश्वर तुम्हें यह करने की अनुमति कैसे दे सकता है? क्या तुम अंधे नहीं हो? क्या तुम अपने ऊपर अवमानना को नहीं लाते हो?
यदि अंत के दिनों में इस चरण के पूरक के बिना केवल यीशु का कार्य किया गया होता, तो मनुष्य ने हमेशा के लिए यह अवधारणा बना ली होती कि केवल यीशु ही परमेश्वर का पुत्र है, अर्थात्, परमेश्वर का सिर्फ एक ही पुत्र है, और यह कि उसके बाद कोई भी जो किसी दूसरे नाम से आता है वह परमेश्वर का एकमात्र पुत्र नहीं होगा, परमेश्वर स्वयं तो बिल्कुल भी नहीं होगा। मनुष्य की अवधारणा यह है कि वह जो एक पापबलि के रूप में सेवा करता है या जो परमेश्वर के लिए सामर्थ्य को ग्रहण करता है और समस्त मानवजाति को छुटकारा दिलाता है, वही परमेश्वर का एकमात्र पुत्र है। कुछ ऐसे हैं जो यह मानते हैं कि जब तक आने वाला कोई पुरुष है, उसे ही परमेश्वर का एकमात्र पुत्र और परमेश्वर का प्रतिनिधि समझा जा सकता है। यहाँ तक कि कुछ ऐसे भी हैं जो कहते हैं यीशु यहोवा का पुत्र है, उसका एकमात्र पुत्र। क्या यह मनुष्य की एक गंभीर अवधारणा नहीं है? यदि कार्य का यह चरण अंत के युग में न किया गया होता, तो जब परमेश्वर की बात आती तो समस्त मानवजाति एक परछाई में ढक गई होती। यदि ऐसा होता, तो मनुष्य अपने बारे में एक स्त्री की तुलना में एक उच्च हैसियत वाला होना सोचता, और स्त्रियाँ कभी भी अपना सिर ऊँचा उठाने में सक्षम नहीं होतीं। ऐसे समय में, किसी भी स्त्री ने उद्धार प्राप्त न किया होता। लोग हमेशा यही माना करते हैं कि परमेश्वर एक पुरुष है, और वह हमेशा स्त्री से घृणा करता है और स्त्री को उद्धार प्रदान नहीं करेगा। यदि ऐसा होता, तो क्या यह सत्य नहीं है कि सभी स्त्रियों को जो यहोवा के द्वारा बनाई गई हैं और भ्रष्ट भी हैं कभी भी बचाए जाने का अवसर नहीं मिला होता? तो फिर क्या यहोवा के लिए स्त्री को बनाना, अर्थात्, हव्वा का बनाया जाना, व्यर्थ नहीं होता? और क्या स्त्री अनंतकाल के लिए नष्ट नहीं हो जाती? इसलिए, अंत के दिनों में कार्य का यह चरण समस्त मानवजाति को बचाने के लिए है, सिर्फ स्त्री को नहीं बल्कि समस्त मानवजाति को बचाने के लिए। यदि कोई अन्यथा सोचता है, तो फिर वह सबसे अधिक मूर्ख है!
वर्तमान में किए गए कार्य ने अनुग्रह के युग के कार्य को आगे बढ़ाया है; अर्थात्, समस्त छह हजार सालों की प्रबन्धन योजना में कार्य आगे बढ़ाया है। यद्यपि अनुग्रह का युग समाप्त हो गया है, किन्तु परमेश्वर के कार्य ने आगे प्रगति की है। मैं क्यों बार-बार कहता हूँ कि कार्य का यह चरण अनुग्रह के युग और व्यवस्था के युग पर आधारित है? इसका अर्थ है कि आज के दिन का कार्य अनुग्रह के युग में किए गए कार्य की निरंतरता और व्यवस्था के युग में किए कार्य का उत्थान है। तीनों चरण आपस में घनिष्ठता से सम्बंधित हैं और एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। मैं यह भी क्यों कहता हूँ कि कार्य का यह चरण यीशु के द्वारा किए गए कार्य पर आधारित है? यदि यह चरण यीशु द्वारा किए गए कार्य पर आधारित न होता, तो फिर इस चरण में क्रूसीकरण, और पहले किए गए छुटकारे के कार्य को अब भी पूरा किए जाने की आवश्यकता होती। यह अर्थहीन होता। इसलिए, ऐसा नही है कि कार्य पूरी तरह समाप्त हो चुका है, बल्कि यह कि युग आगे बढ़ गया है, और यहाँ तक कि कार्य पहले से भी अधिक ऊँचा हो गया है। यह कहा जा सकता है कि कार्य का यह चरण अनुग्रह के युग की नींव और यीशु के कार्य की चट्टान पर निर्मित है। कार्य चरण-दर-चरण निर्मित किया जाता है, और यह चरण एक नई शुरुआत नहीं है। सिर्फ तीनों चरणों के कार्य के संयोजन को ही छह हजार सालों की प्रबन्धन योजना समझा जा सकता है। यह चरण अनुग्रह के युग के कार्य की नींव पर किया जाता है। यदि कार्य के ये दो चरण असम्बंधित हैं, तो इस चरण में सलीब पर चढ़ना क्यों नहीं है? मैं मनुष्य के पापों को क्यों नहीं उठाता हूँ? मैं पवित्र आत्मा द्वारा गर्भाधान के माध्यम से नहीं आता हूँ न ही मैं मनुष्य के पापों को उठाने के लिए सलीबसलीब पर चढ़ाया जाऊँगा। बल्कि, मैं यहाँ मनुष्य को प्रत्यक्ष रूप से ताड़ना देने के लिए हूँ। यदि मैंने सलीब पर चढ़ाए जाने के बाद मनुष्य को ताड़ना नहीं दी, और अब मैं पवित्र आत्मा द्वारा गर्भधारण के माध्यम से नहीं आता, तो मैं मनुष्य को ताड़ना देने के योग्य नहीं होता। यह ठीक-ठीक इसलिए है क्योंकि मैं यीशु के साथ एक ही हूँ जो प्रत्यक्ष रूप से मनुष्य को ताड़ना देने और उसका न्याय करने के लिए आता हूँ। कार्य का यह चरण पूरी तरह से पिछले चरण पर ही निर्मित है। यही कारण है कि सिर्फ ऐसा कार्य ही चरण-दर-चरण मनुष्य को उद्धार तक ला सकता है। यीशु और मैं एक ही पवित्रात्मा से आते हैं। यद्यपि हमारी देहों का कोई सम्बंध नहीं है, किन्तु हमारी पवित्रात्माएँ एक ही हैं; यद्यपि हम जो करते हैं और जिस कार्य को हम वहन करते हैं वे एक ही नहीं हैं, तब भी सार रूप में हम सदृश्य हैं; हमारी देहें भिन्न रूप धारण करती हैं, और यह ऐसा युग में परिवर्तन और हमारे कार्य की आवश्यकता के कारण है; हमारी सेवकाईयाँ सदृश्य नहीं हैं, इसलिए जो कार्य हम लाते और जिस स्वभाव को हम मनुष्य पर प्रकट करते हैं वे भी भिन्न हैं। यही कारण है कि आज मनुष्य जो देखता और प्राप्त करता है वह अतीत के असमान है; ऐसा युग में बदलाव के कारण है। यद्यपि उनकी देहों के लिंग और रूप भिन्न-भिन्न हैं, और यद्यपि वे दोनों एक ही परिवार में नहीं जन्मे थे, उसी समयावधि में तो बिल्कुल नहीं, किन्तु उनकी पवित्रात्माएँ एक हैं। यद्यपि उनकी देहें किसी भी तरीके से रक्त या शारीरिक सम्बंध साझा नहीं करती हैं, किन्तु इससे यह इनकार नहीं होता है कि वे भिन्न-भिन्न समयावधियों में परमेश्वर के देहधारी शरीर हैं। यह एक निर्विवाद सत्य है कि वे परमेश्वर के देहधारी शरीर हैं, यद्यपि वे एक ही व्यक्ति के वंशज या सामान्य मानव भाषा (एक पुरुष था जिसने यहूदियों की भाषा बोली और दूसरी स्त्री है जो सिर्फ चीनी भाषा बोलती है) को साझा नहीं करते हैं। यह इन्हीं कारणों से है कि उन्हें जो कार्य करना चाहिए उसे वे भिन्न-भिन्न देशों में, और साथ ही भिन्न-भिन्न समयावधियों करते हैं। इस तथ्य के बावजूद भी वे एक ही पवित्रात्मा हैं, एक ही सार को धारण किए हुए हैं, उनकी देहों के बाहरी आवरणों के बीच बिल्कुल भी पूर्ण समानताएँ नहीं है। वे मात्र एक ही मानजाति को साझा करते हैं, परन्तु उनकी देहों का प्रकटन और जन्म सदृश्य नहीं हैं। इनका उनके अपने-अपने कार्य या मनुष्य के पास उनके बारे में जो ज्ञान है उस पर कोई भी प्रभाव नहीं पड़ता है, क्योंकि, आखिरकार, वे एक ही पवित्रात्मा हैं और कोई भी उन्हें अलग नहीं कर सकता है। यद्यपि वे रक्त द्वारा सम्बंधित नहीं हैं, किन्तु उनका सम्पूर्ण अस्तित्व उनकी पवित्रात्माओं के द्वारा निर्देशित होता है, जिसकी वजह से, उनकी देह एक ही का वंशज साझा नहीं करने के साथ, वे भिन्न-भिन्न समयावधियों में भिन्न-भिन्न कार्य का उत्तरदायित्व लेते हैं। उसी तरह, यहोवा का पवित्रात्मा यीशु के पवित्रात्मा का पिता नहीं है, वैसे ही जैसे कि यीशु का पवित्रात्मा यहोवा के पवित्रात्मा का पुत्र नहीं है। वे एक ही आत्मा हैं। ठीक वैसे ही जैसे आज का देहधारी परमेश्वर और यीशु हैं। यद्यपि वे रक्त के द्वारा सम्बंधित नहीं हैं; वे एक ही हैं; ऐसा इसलिए है क्योंकि उनकी पवित्रात्माएँ एक ही हैं। वह दया और करुणा का, और साथ ही धर्मी न्याय का और मनुष्य की ताड़ना का, और मनुष्य पर श्राप लाने का कार्य कर सकता है। अंत में, वह संसार को नष्ट करने और दुष्टों को सजा देने का कार्य कर सकता है। क्या वह यह सब स्वयं नहीं करता है? क्या यह परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता नहीं है? वह मनुष्य के लिए व्यवस्था निर्धारित करना और आज्ञाएँ जारी करना दोनों कर सकता है, और आरंभिक इस्राएलियों को पृथ्वी पर अपने जीवन जीने के लिए अगुवाई भी कर सका था और मंदिर और वेदियाँ बनाने, समस्त इस्राएलियों पर शासन करने के लिए उनका मार्ग दर्शन कर सका था। अपने अधिकार के कारण, वह पृथ्वी पर उनके साथ दो हजार वर्षों तक रहा। इस्राएलियों ने विद्रोह करने का साहस नहीं किया; सब यहोवा का भय मानते और आज्ञाओं का पालन करते थे। यह सब कार्य उसके अधिकार और उसकी सर्वशक्तिमत्ता की वजह से ही किया जाता था। अनुग्रह के युग में, यीशु संपूर्ण पतित मानवजाति (सिर्फ इस्राएलियों को नहीं) को छुटकारा दिलाने के लिए आया। उसने मनुष्य के प्रति दया और करुणा दिखायी। मनुष्य ने अनुग्रह के युग में जिस यीशु को देखा वह करुणा से भरा हुआ और हमेशा ही प्रेममय था, क्योंकि वह मनुष्य को पाप से मुक्त कराने के लिए आया था। जब तक उसके सूली पर चढ़ने ने मानव जाति को वास्तव में पाप से मुक्त नहीं कर दिया तब तक वह मनुष्य के पाप माफ कर सकता था। उस समय के दौरान, परमेश्वर मनुष्य के सामने दया और करुणा के साथ प्रकट हुआ; अर्थात्, वह मनुष्य के लिए एक पापबलि बना और मनुष्य के पापों के लिए सलीब पर चढ़ाया गया ताकि उन्हें हमेशा के लिए माफ कर दिया जाए। वह दयालु, करुणामय, सहनीय और प्रेममय था। और वे सब जिन्होंने अनुग्रह के युग में यीशु का अनुसरण किया था उन्होंने भी सारी चीजों में सहनीय और प्रेममय बनने की इच्छा की। उन्होंने सभी कष्ट सहे, और यहाँ तक कि यदि पीटे गए, शाप दिए गए या पत्थर मारे गए तो भी लड़ाई नहीं की। परन्तु इस अंतिम चरण में ऐसा नहीं है, बहुत कुछ जैसा कि यीशु का और यहोवा का कार्य सदृश्य नहीं था यद्यपि उनकी पवित्रात्माएँ एक ही थीं। यहोवा का कार्य युग का अंत करना नहीं था बल्कि इसकी अगुवाई करना और पृथ्वी पर मानवजाति का सूत्रपात करना था। हालाँकि, अब कार्य अन्य जाति के राष्ट्रों में गहराई से भ्रष्ट मनुष्यों को जीतना और न केवल चीन के परिवार की बल्कि समस्त विश्व की अगुआई करना है। तुम इस कार्य को सिर्फ चीन में ही होते हुए देखते हो, परन्तु वास्तव में इसने पहले से ही विदेश में फैलना शुरू कर दिया है। ऐसा क्यों है कि विदेशी बार-बार सच्चे मार्ग को खोजते हैं? यह इसलिए है क्योंकि पवित्रात्मा ने अपना कार्य पहले से ही शुरू कर दिया है, और ये वचन अब समस्त विश्व के लोगों की ओर निर्देशित हैं। आधा कार्य पहले से ही हो चुका है। विश्व से सृजन के बाद से परमेश्वर के आत्मा ने इतना महान कार्य किया है; उसने विभिन्न युगों के दौरान, और भिन्न-भिन्न देशों में भिन्न-भिन्न कार्य किए हैं। प्रत्येक युग के लोग उसके भिन्न स्वभाव को देखते हैं, जो कि उस भिन्न कार्य के माध्यम से प्राकृतिक रूप से प्रकट होता है जिसे वह करता है। वह दया और करुणा से भरा हुआ परमेश्वर है; वह मनुष्य और मनुष्य के चरवाहे के लिए पापबलि है, फिर भी वह मनुष्य पर न्याय, ताड़ना, और श्राप भी है। वह मनुष्य की पृथ्वी पर दो हजार साल तक रहने में अगुआई कर सका और भ्रष्ट मानवजाति को पाप से छुटकारा दिला सका था। और आज, वह उस मानवति को जीतने में भी सक्षम है जो उसे नहीं जानती है और उसे अपने प्रभुत्व के अधीन करने में सक्षम है, ताकि सभी पूरी तरह से उसके प्रति समर्पण कर दें। अंत में, वह समस्त विश्व में मनुष्यों के अंदर जो कुछ भी अशुद्ध और अधर्मी है उसे जला कर दूर कर देगा, ताकि उन्हें यह दिखाए कि वह न सिर्फ दया, करुणा, बुद्धि, आश्चर्य और पवित्रता का परमेश्वर है, बल्कि इससे भी अधिक, वह एक ऐसा परमेश्वर है जो मनुष्य का न्याय करता है। मानवजाति के बीच बुरों के लिए, वह प्रज्वलन, न्याय करने वाला और दण्ड है; जिन्हें पूर्ण किया जाना है उनके लिए, वह क्लेश, शुद्धिकरण, और परीक्षण, और साथ ही आराम, संपोषण, वचनों की आपूर्ति, व्यवहार करने वाला और काँट-छाँट है। और जिन्हें अलग कर दिया जाता है उनके लिए, वह सजा, और साथ ही प्रतिशोध भी है। मुझे बताएँ, क्या परमेश्वर सर्वशक्तिमान नहीं है? वह सभी कार्य कर सकता है, न कि सिर्फ सलीब पर चढ़ने, जैसी कि तुमने कल्पना की है। तुम परमेश्वर के बारे में बहुत नीचा सोचते हो! क्या तुम मानते हो कि उसके क्रूसीकरण के माध्यम से समस्त मानवजाति के छुटकारे के बाद सब कुछ समाप्त हो जाएगा? और यह कि, इसके बाद, तुम स्वर्ग में उसका अनुसरण करोगे फिर जीवन के वृक्ष से फल खाओगे और जीवन की नदी से जल पीओगे?... क्या यह इतना आसान हो सकता है? मुझे बताओ, तुमने क्या निष्पादित किया है? क्या तुममें यीशु का जीवन है? तुम अवश्य ही उसके द्वारा छुटकारा दिलाए गए थे, परन्तु सलीब पर चढ़ना स्वयं यीशु का कार्य था। एक मनुष्य के रूप में तुमने कौन सा कर्तव्य निभाया है? तुममें सिर्फ बाहरी धार्मिकता है परन्तु उसके मार्ग को नहीं समझते हो। क्या ऐसे ही तुम उसे व्यक्त करते हो? यदि तुमने परमेश्वर का जीवन प्राप्त नहीं किया है या उसके धर्मी स्वभाव की सम्पूर्णता को नहीं देखा है, तो तुम ऐसा व्यक्ति होने का दावा नहीं कर सकते हो जिसमें जीवन होता है, और तुम स्वर्ग के राज्य के द्वार से गुजरने के योग्य नहीं हो।
परमेश्वर न केवल एक आत्मा है बल्कि वह देहधारण भी कर सकता है; इसके अलावा, वह महिमा का एक शरीर है। यीशु को यद्यपि तुम लोगों ने नहीं देखा है उसकी गवाही इस्राएलियों के द्वारा, अर्थात्, उस समय के यहूदियों द्वारा दी गई थी। पहले वह एक देह था, परन्तु उसे सलीब पर चढ़ाए जाने के बाद, वह महिमावान शरीर बन गया। वह व्यापक पवित्रात्मा है और सभी स्थानों में कार्य कर सकता है। वह यहोवा, यीशु और मसीहा हो सकता है; अंत में, वह सर्वशक्तिमान परमेश्वर बन सकता है। वह धार्मिकता, न्याय, और ताड़ना है, श्राप और क्रोध है, परन्तु दया और करुणा भी है। उसके द्वारा किया गया समस्त कार्य उसका प्रतिनिधित्व कर सकता है। तुम क्या कहते हो कि वह किस प्रकार का परमेश्वर है? तुम मात्र उसकी व्याख्या करने में सक्षम नहीं होगे और केवल कह सकते हो कि, "मैं नहीं समझा सकता हूँ कि वह किस प्रकार का परमेश्वर है?" यह निष्कर्ष मत निकालो कि परमेश्वर हमेशा के लिए दया और करुणा का ही परमेश्वर है, मात्र इसलिए क्योंकि परमेश्वर ने एक चरण में छुटकारे का कार्य किया। क्या तुम निश्चित हो सकते हो कि वह केवल ऐसा ही परमेश्वर है? यदि वह एक दयालु और प्रेममय परमेश्वर है, तो क्यों वह अंत के दिनों में युग का अंत करेगा? क्यों वह बहुत सी विपत्तियाँ गिराएगा? यदि यह ऐसा है जैसा कि तुम सोचते हो, कि वह अंत तक, यहाँ तक कि अंतिम युग तक, मनुष्य के प्रति दयालु और प्रेममय रहेगा, तो फिर वह स्वर्ग से विपत्तियाँ क्यों गिराएगा? यदि वह मनुष्य के साथ स्वयं के जैसे और अपने एकमात्र पुत्र के जैसे प्रेम करता है, तो वह स्वर्ग से दैवी कोप और ओले क्यों गिराएगा? वह मनुष्य को अकाल और महामारी से पीड़ित क्यों होने देता है? वह मनुष्य को इन विपत्तियों से पीड़ित क्यो होने देता है? तुम लोगों में से कोई भी यह कहने का साहस नहीं रखता कि वह किस प्रकार का परमेश्वर है, कोई भी नहीं समझा सकता है। क्या तुम निश्चित हो सकते हो कि वह पवित्रात्मा है? क्या तुम यह कहने का साहस रखते हो कि वह यीशु की देह है? और क्या तुम यह कहने करने का साहस रखते हो कि वह एक ऐसा परमेश्वर है जिसे मनुष्य के लिए हमेशा के लिए सलीब पर चढ़ाया जाएगा?
"वचन देह में प्रकट होता है" से
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